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(२१४) प्रतिष्ठा करवाते थे, कभी कर्पूर-गोशीर्ष-हरिचंदन आदि से जिनेंद्रप्रतिमाओं का विलेपन करते थे, कभी अत्यंत सुगंधित पंचवर्ण फूलों से अनेक उपचारों से जिन-पूजा करते थे, कभी तो बहुमूल्य सुन्दर वस्त्रों से जिन-मंदिरों में चंदवा बनवाते थे, कभी यत्नपूर्वक नगर में की गई रथयात्रा को देखते थे और उसमें आनेवाले दीनोंअनाथों को अभिलषित वस्तु देकर प्रसन्न करते थे, कभी अंतःपुर में अनेक लीला विलासपूर्वक भार्याओं के साथ सुरत-सुख का सेवन करते थे, कभी सुन्दर गीत सुनते थे, कभी उत्तम नाटक देखतें थे, इस प्रकार अपने पूर्वजों के आचरणों के अनुरूप लोक आगम से अविरुद्ध आचरण करते थे, जिन-शासन की प्रभावना में लीन मकरकेतु राजा को सुर-सुन्दरी के साथ सुखोपभोग करते हुए लाखों पूर्व बीत गए ।
उसके बाद एक समय रात में राजा के साथ जब सुरसुंदरी सोई थी, रात बीतने पर प्रातःकाल में उसने स्वप्न देखा कि एक कालानाग राजा सहित उसको भी काटकर उसके पेट में प्रविष्ट हो गया है, देखते ही उसकी नींद खुल गई, डरकर उसने सोचा कि यह स्वप्न अमांगलिक है, अतः राजा से कहना ठीक नहीं होगा । इतने में प्राभातिक मांगलिक बाजाओं के बजने से राजा की नींद खुली और उन्होंने शरीर शौच करके युगादि जिनप्रतिमा से मण्डित जिन-मंदिर में जाकर जिन-बिम्ब की पूजा करके चैत्यवंदन करके, उचित प्रत्याख्यान करके वार विलासिनी से भरे सभा-मंडप में आए, उनके द्वारा अंगलेपन किए जाने पर राजा वहाँ से उठ गए, विद्या द्वारा अनेक विमानों को मंगवाकर सुरसुंदरी आदि भार्याओं सहित अनेक विद्याधरों के साथ उन विमानों पर चढ़कर, हिमालय के शिखर पर नंदनवन