Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 232
________________ (२२१) भोगता है, और वह बराबर नारकगति से तिर्यंचगति ओर तिर्यंच गति से नारकगति में भ्रमण करता है, अतः प्राणियों को चाहिए कि राग-द्वेष छोड़कर अनंतभव संसार से पार हो जाए, म्यान से निकालकर अपने ऊपर उठाई गई तलवार को देखकर राजा अत्यंत विस्मित हो गए और उन्होंने सोचा कि यह दुष्टा ललिता ने मुझे मारने के लिए घर में प्रवेश किया है । यह सोचकर राजा ने भयंकर हुंकार करते हुए स्तम्भिनी विद्या से उसे चित्र के समान निश्चेष्ट कर दिया, रानी ने कहा, ललिते ? क्यों तू इस तरह राजा को मारने के लिए तैयार हो गई ? राजा ने कहा, देवि ? स्त्री इतना बड़ा साहस नहीं कर सकती हैं, इसलिए कोई दुष्ट पुरुष ही विद्या सीखकर आया है, फिर राजा ने परविद्याच्छेदकारी विद्या का आवाहन करके उसकी सारी विद्याएं नष्ट कर दी, विद्याच्छेद होने पर वह प्रकृतिस्थ हो गया, राजा ने कहा, देवि ? यह तो कुमार जैसा लगता है । अवश्य यह आपका ही पहला पुत्र है। राजा की बात सुनकर रानी अत्यंत लज्जित हो गई, उसी दिन किसी राजकार्य से सुरनंदन नगर से जलकांत का 'स्फुटवचन' नाम का दूत आया। राजा ने उससे पूछा, भद्र ? जन्मदिन में नैमित्तिकवचन से जन्म लेते ही जिस पुत्र को मैंने प्रियंवदा के पास भेजा था, यह वही है या नहीं ? उसने कहा, यह तो मदनवेग ही हैं, उसका वचन सुनकर राजा चिंतित होकर बोले । आज भी वह पूर्ववैरी पीछा नहीं छोड़ रहा है, अतः संसार-स्वभाव को सर्वथा धिक्कार है, देखो न बिना कारण क्रोध में आकर ऐसा पाप करता है। राजा ने मंत्रियों से गुप्त मंत्रणा करके उसे जेल में रख दिया और अपने आप्तपुरुष को रक्षक नियुक्त कर दिया, वहाँ भी वह सतत राजा को मारने के लिए ही उपाय सोचता रहा।

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