Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 234
________________ (२२३) दुष्ट डरकर विष्ठाकूप में गिर पड़ा । पापी दूसरे का अनिष्ट करना चाहता है किंतु दूसरों के पुण्य से कष्ट का अनुभव स्वयं करता है । अंग-रक्षकों ने चारों ओर से राजा को घेर लिया, मणि जल सोचने से राजी की वेदना नष्ट हो गई, देश के अंत भाग से मदनवेग के रक्षक पुरुष आए और उन्होंने कहा, राजन् ! मदनवेग तो अदृष्ट होकर कहीं भाग गए । राजा ने मन में सोचा कि यह तो मेरे पुत्र का ही काम था । जानता हुआ भी मैं धर्मकार्य से विरत क्यों हूँ ? यदि भोग में आसक्त जिन-धर्माचरण के विना ही यदि मर गया होता, तो मैं किस गति को प्राप्त करता? एक समय सेवा नियुक्त विद्याधर ने आकर प्रार्थना की कि कुसुमाकरोद्यान में चित्रवेग सूरि आए हैं, प्रसन्न होकर उसे पारितोषिक देकर अंत:पुर सहित राजा सूरि के पास आए, तीन प्रदक्षिणा करके नतमस्तक होकर सूरि की वंदना करके, बाद में अमरकेतु मुनि की भी वंदना करके राजा बैठ गए। संसार से उद्वेग करानेवाली, राग-द्वेषादि शत्रु का नाश करनेवाली, संवेगकारिणी सूरि की देशना सुनकर संवेग में आकर राजा ने सूरि से पूछा, भगवन् ? मेरा पुत्र मदनवेग मेरे साथ शत्रुता का आचरण करता है, अभी वह कहाँ है ? सूरि ने कहा, राजन? सुनिए, जो सुबंधुजीव कालबाण देव हुआ था, जिसने आपका विद्याच्छेद किया था, और सुरसुन्दरी के अपहरण के समय जो च्युत हो गया था, वनमहिष होकर उत्पन्न हुआ और दावानल में जलकर मर गया, फिर वह कृमियों से भरी एक कुत्ती के गर्भ से उत्पन्न हुआ, पाँच दिन के बाद उसकी माता कुत्ती मर गई, भूख से तड़प-तड़पकर मर गया। उसके बाद एक ब्राह्मण के यहाँ बैल हुआ, किंतु वह गली था। ससे तंग आकर ब्राह्मण ने एक धाँची के हाथ उसे बेच दिया ।

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