Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 224
________________ सोलहवाँ-परिच्छेद राजा मकरकेतु ने भी विद्याधरों से दी गई कन्याओं के साथ विवाह करके विद्याधरों को यथोचित गाँव, नगर आदि देकर समस्त भरतार्द्ध के राजाओं को अपने वश में करके, सभी देशों को उपद्रव, चोरादिभय से मुक्त करके आर्य देश के गाँवों, आकरोंनगरों को ऊँचे धवल जिन-मंदिरों से विभूषित करके, लोगों को कर (टैक्स) से मुक्त करके श्वापद (हिंसक) जीवों को शांत करके, जिन-शासन-श्रमण संघ के विरोधियों को निर्मूल करके, देशों में मुनिजनों के अप्रतिहत विहार की सुविधा करके, सामंतों को साधार्मिक वत्सल बनाकर जगह-जगह दानशाला, पानीयशाला आदि की व्यवस्था करके प्रजापालन को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया । ये दुष्टों को, धृष्टों को, लुटेरों को, अन्यायियों को दंड देते हुए याचकों को मनवांछित वस्तु देकर प्रसन्न करते हुए शत्रुमंडल को अपने वश में करते हुए, दुर्गम मार्ग को सुगम बनाते हुए, सुरसुन्दरी आदि रानियों के साथ अपूर्व विषयसुख का अनुभव करते हुए, देवलोक में इंद्र की तरह हस्तिनापुर में आनंद से रहने लगे ! वे कभी दशों-दिशाओं में फैलती किरणोंवाले, निर्मल शिलाओंवाले जिन-मंदिरों को बनवाते थे और बनानेवाले वैज्ञानिकों को उत्तम पुरस्कार देते थे, कभी तो शास्त्रविहित प्रकार से सकल लोककल्याणकारी जिन-बिंबों को बनवाते थे, कभी जिन-मंदिरों की

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