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करते हुए दर्शन करें, वे जब आने के लिए सामग्री का आयोजन कर रहे थे, इतने में पिताजी से पूछकर सुरसुंदरि ! मैं प्रिय निवेदन करने के लिए आपके पास आ गई हूँ, इस प्रकार प्रियंवदा के वचन सुनकर दास-दासियों ने जाकर राजा से कहा, सुनते ही प्रसन्न होकर राजा पुत्र की अगवानी के लिए सुंदर बाजाओंवाले, गीत गानेवाले-नाचनेवाले लोगों के साथ चतुरंग सेना को लेकर, हाथी पर चढ़कर नगर से निकले। इतने में अनेक प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ ध्वजछत्र आदि से विभूषित विद्याधर सैन्य आकाश में दिखने लगा, उसके बीच में मणिमय स्तंभोंवाले विचित्ररूप विमान पर चढ़े हुए मकरकेतु ने आगे आते हुए राजा को देखकर, आकाश से उतरकर, पिताजी के चरणों पर अपना मस्तक नमाया । अमरकेतु राजा भी स्नेह से पुत्र का आलिंगन करके आँखों से आनंदाश्रु को बरसाते हुए पुत्र के मस्तक को चूमने लगे। बाद में यथायोग्य विद्याधरों को सत्कार करके वंदियों से स्तुति किए जाते हुए राजा नगर में आए। अनेक मांगलिक उपचार के साथ राजा ने अपने मंदिर में पुत्र का प्रवेश कराया। अन्य विद्याधरों को भी योग्य आवासस्थान दिए। कुछ विद्याधरों के साथ पुत्र को लेकर राजा अंतःपुर में आए । पुत्र दर्शन के लिए उत्कंठित माता कमलावती के चरण में मकरकेतु ने अपना मस्तक नमाया। माता ने कोमल हाथों से पुत्र को पकड़कर अपनी गोद में बैठाया, आलिंगन करके मस्तक को चूमा । आनंदाश्रु बहाती हुई कमलावती ने कहा, कि पुत्र ! मेरा हृदय अवश्य वज्र जैसा कठोर है, जिससे कि तेरे विरह में भी यह विदीर्ण नहीं हुआ । मकरकेतु ने कहा, माताजी ! दैवाधीन होने से प्राणियों को कष्ट सहन करने पड़ते ही हैं, इसके बाद बड़े-बड़े मौक्तिकों से