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(११०) गुप्ति आदि उसकी शाखाएँ हैं, वह अनेक अभिग्रह रूप गुच्छों से सुशोभित है, शीलांग उसके पत्र हैं, लब्धि फूल है, स्वर्ग मोक्ष सुख उसका फल है, वह दुःख संतप्त जीवों का शरण है, चपल ईद्रियाँ, विषयसंग दुःख में कारण हैं, क्रोधादि कषाय दुर्गति के साधन हैं, एक बार किया गया भी प्रमाद जीवों को भवसागर में गिराता है, सूरि के वचन सुनकर संवेग धारण करके नगरनिवासी लोग अपने-अपने घर चले, धर्मोपदेश सुनते ही संसार भय से उद्विग्न होकर सुधर्म ने प्रणाम करके सूरि से प्रार्थना की कि जन्म-जरामरण से मैं भयभीत हूँ यदि पिताजी आज्ञा दें तो मैं आपके पास प्रव्रज्या लेना चाहता हूँ, माता-पिता ने उसे मक्त किया और सरि ने उसे भागवती दीक्षा दे दी।
ग्रहण आसेवन रूप दोनों प्रकार की शिक्षा का अभ्यास करके संयम, तप आदि में तत्पर होकर वह गुरु के पास अध्ययन करने लगा। वह सूवार्थ का ज्ञान करते हुए क्रमश: चौदह पूर्व का ज्ञाता बन गया । योग्य समझकर शुभ नक्षत्र से सरि ने उसे अपने पद पर अभिषिक्त किया और सुदर्शन सूरि संलेखना से मोक्ष में गए, श्रमणों से परिवृत्त सुधर्मसूरि ग्रामनगरादि में विहार करते हुए भव्यात्माओं को प्रतिबोध देने लगे। इधर धनवाहन भी कुमारभाव प्राप्त होकर अनेक कलाओं का अभ्यास करके उसने कामिनीजनों के चित्त को चुराने में समर्थ यौवन प्राप्त किया। पिता ने उसके लिए सुप्रतिष्ठ नगर के हरिदत्त श्रेष्ठी की विनयवती भार्या से उत्पन्न अनंगवती नामक कन्या का वरण किया। सुंदर लग्न में बड़े समारोह के साथ धनवाहन ने उसके साथ विवाह करके अपने नगर लाकर अनेक प्रकार के विषयसुख का