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(१४३) मैंने चारों ओर देखा, कहीं भी कोई बस्ती नहीं देखने में आई, चारों ओर जंगल ही जंगल देखने में आ रहे थे।
उस जंगल में कहीं भयंकर सिंह के गर्जन से हरिण कॅप रहे थे, कहीं तो बड़े-बड़े जंगली भैंसें लड़ रहे थे, कहीं तो बंदरों के बुंकार से दिशाएँ बहरी हो रही थी। कहीं दावानल में जलते जीवों के करुण शब्द सुनाई पड़ रहे थे, कहीं-कहीं गैंड़ों से मारे गए मृगों के खून से वनभूमि रंगी हुई थी, कहीं तो सिंहों के भय से बड़े-बड़े हाथी डरकर भाग रहे थे। कहीं-कहीं व्याध धनुष चढ़ाए हुए मृगों को मारकर उनका सिर हाथ में लिए घूमते थे, कहीं-कहीं बड़े-बड़े भालू विचर रहे थे । उस जंगल में घूमने पर अत्यंत प्यास लगने पर एक दिशा में जल से भरे एक सरोवर को मैंने देखा । उसी ओर चलकर मैंने किसी-किसी तरह उस सरोवर को पाया। पानी पीकर उसके तटवृक्ष की छाया में बैठ गई, इतने में सूर्यास्त हुआ और रात फैल गई। उसके बाद ज्यों-ज्यों सियारिन फें कार करने लगी और हिंसक जंतु भीषण आवाज़ करने लगे, त्यों-त्यों मेरा हृदय भय से कँपने लगा । आधी रात के समय मेरे पेट में असहय वेदना होने लगी, इतने में अत्यंत वेदना से पीड़ित मृगी की तरह, राजन ! बड़े कष्ट से मैंने प्रसव किया। कुछ देर के लिए मूच्छित रही। मूर्छा टूटने पर भूमि पर लुढ़कते हुए बालक को बड़े स्नेह से पकड़कर जलाशय में जाकर, उसे नहलाकर, अपने वस्त्रों को धोकर एकांत में एक निकुंज में जाकर बैठ गई। उसके बाद दिव्य मणिवाली अंगूठी को अपने हाथ से निकालकर यह कहते हुए पुत्र के गले में बाँध दिया कि इस मणि के प्रभाव से भरे बालक के अंग में भूत-पिशाच दुष्टग्रहादि स्पर्श न करें, फिर मैंने कहा कि हे वनवासिन वनदेवताएँ? मैं इस जंगल