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ग्यारहवाँ-परिच्छेद
उसके बाद होश आने पर अत्यंत दुःखी होकर अपनी छाती पीटती हुई मैं इस प्रकार विलाप करने लगी कि हाय ! इस जंगल में मैं यों ही दुःख से पीडित थी, फिर भी अभी-अभी उत्पन्न मेरे पुत्र को कोई चुराकर ले गया, हाय ! मैं आशा कर रही थी कि कल सबेरे पुत्र का मुंह देखुंगी किंतु दुष्ट दैव ने कुछ और ही कर दिया, हा दैव ! वनवास का दुःख देने से भी तुमको संतोष नहीं हुआ, जिससे मेरे पुत्र का हरण किया, वनदेवताएँ भी मेरे पुत्र की रक्षा नहीं कर सकी, हाय पुत्र ! जंगल में मुझे अकेली छोड़कर मेरी गोद से तू कहाँ चला गया? निश्चय जिसके शब्द को सुनकर मैं एकाएक जग गई थी वही पिशाच मेरे पुत्र को हरकर ले गया है, जिस मणि के प्रभाव से वह दुष्ट हाथी सरोवर में गिरा था, वह मणि भी काम नहीं कर सकी, हाय पुत्र ? वह मणि तेरे गले में बाँध रक्खी थी, तुझे मैंने अपनी गोद में रक्खा था फिर भी वह दुष्ट तुझे हरकर ले गया। इस प्रकार मेरे विलाप को सूनकर मेरे दुःख से दुःखित होकर रात भी बीत गई, मुझे रोती देखकर तारों के आँसू बहाती हुई आकाश-लक्ष्मी रोने लगी, इतने में मेरे पुत्र को चुरानेवाले को देखने के लिए अंधकार का नाश करके सूर्य उदित हुआ । आध प्रहर दिन बीतने पर जब मैं रोती हुई इधर-उधर घूम रही थी,
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