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बारहवाँ-परिच्छेद
उसके बाद उत्तम रेशमी वस्त्ररचित चंद्रवावाले अत्यंत विशाल अपने घर में बिछौने पर जाकर सो गई और सखियों से कहा कि तुम अपने-अपने घर जाओ, क्यों कि मेरे सिर में पीड़ा हो रही हैं, सारे अंग टूटते हैं, शरीर में ज्वर जैसा है अतः मैं कुछ देर सोऊँगी, तब कुमुदिनी ने कहा कि सो जाइए, कुछ हँसते हुए श्रीमती ने कहा, बहन ! एकाएक आपका शरीर अस्वस्थ क्यों हो गया ? कुछ कारण तो बतलाइए, वासंतिका ने कहा, श्रीमति ? तुम ही वैद्यक शास्त्र जानती हो इसलिए इस रोग का निदान बतलाओ, उसके बाद श्रीमती ने मेरी नाड़ियाँ देखकर कहा कि बाहर से देखने से तो कुछ मालूम नहीं होता है, शरीर मानस दो प्रकार के रोग-शास्त्र में बतलाए गए हैं, जिनमें शरीररोग वात-पित्त-क:फ की विषमता से उत्पन्न होता है और लंघन आदि से दूर होता है । भूतग्रह, शाकिनी, नेत्रदोष आदि से आगंतुक रोग उत्पन्न होता है, बल्कि होम मंत्र-तंत्र आदि से मिटता है, शरीर रोग का लक्षण नहीं है, अतः आगंतुक रोग ही होना चाहिए। इसलिए नमक उतारो, मंत्र-तंत्रवालों को बुलाओ, सरसों से ताड़न करो, रक्षाबंधन करो, तब ललिता ने श्रीमती से कहा कि अब उपेक्षा का समय नहीं है, उपेक्षा करने से बीमारी बढ़ेगी, श्रीमती ने कहा कि मैं तो सिर्फ रोग का लक्षण जानती