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(१६६) किया और मुझे यह कोई दूसरा ही हरकर ले आया है । मेरे जीवन को सर्वथा धिक्कार हैं, मुझ अभागिन को तो सब कुछ विपरीत ही हुआ। इस प्रकार जब मैं सोच रही थी, तब उसने मुझसे कहा कि तुम यहाँ बैठो, मैं इस बाँस के निकुंज में प्रज्ञप्ति विद्या की सहस्र जाप से आराधना करके थोड़ी देर में आता हूँ।
___ उसके चले जाने पर मैं फिर अनेक प्रकार का चिंतन करने लगी । यूथभ्रष्ट हरिणी की तरह चारों ओर देख रही थी कि इतने में पास में ही चारों ओर फैली हुई शाखाओंवाले फलों से परिपूर्ण एक विषवृक्ष को देखकर प्रसन्न हुई प्रिय सखि ? हंसिनि? सब दुःखों का अंत हो जायगा यह सोचकर उस वृक्ष के पास जाकर उसका फल लेकर “ फिर ऐसी विडम्बना अन्य जन्म में नहीं आए, यह कहकर मैंने अपने मुख में रख लिया । अत्यंत तीव्र होने से एक क्षण में ही मे विषवेदना से विव्हल होकर भूमि पर गिर पड़ी । उस समय मेरी नज़र में सारा वन घूम रहा था, पृथिवी घूम रही थी। उसके बाद अकथनीय अवस्था प्राप्त होने पर मैं कुछ नहीं जान पाई, उसके बाद मैने देखा कि एक तरुण पुरुष ने मेरे शरीर को अपनी गोद में रखकर विष दूर करने में समर्थ मणिजल को मुझे पिला रहा था। उसी जल से मेरे शरीर को सींच रहा था, पवन का उपचार कर रहा था। प्रियंवदा चित्रपट दर्शन से लेकर मेरे संबंध में बातें कह रही थीं, सुनने के बाद विष की वेदना नष्ट होने से मैं एकदम स्वस्थ हो गई। स्वप्न देख रही थीं, ऐसा मानती हुई मैं जग गई और सामने मदन समान सुंदर अपने वल्लभ को देखकर मैं सोचने लगी कि क्या यह इंद्रजाल है ? अथवा यह मेरा दूसरा जन्म है ? अथवा यह स्वप्न है ? क्या बुद्धि विभ्रम है ? अथवा मैं यह सत्य ही है ? अथवा