Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 214
________________ (२०३) समुद्र में भी देखा, आप तो नहीं मिली किंतु बीच समुद्र में तरंगों पर बहते हुए भाई मकरकेतु को देखा, उसको उठाकर जिन-मंदिर में ले गई, पूछा कि आप समुद्र में कैसे गिरे ? भाई ने वेताल दर्शन से लेकर विद्याच्छेद तक की सारी बातें मझसे बतलाईं और फिर पूछा कि सुरसुंदरी कहाँ है ? मैंने कहा कि पिशाच रूप में किसी ने उसका अपहरण किया । सुनते ही बड़े मुद्गर से मानो पीटे न गए हों, इस तरह एकाएक मूच्छित हो गए। पास के विद्याधरों के द्वारा शीतलजल, पवन आदि के अनेक उपचार करने पर स्वस्थ होकर भी फिर मूच्छित हो जाते थे, विद्याधरों ने जाकर पिताजी से उनका समाचार बतलाया, सुनते ही अत्यंत शोकित होकर पिताजी भी वहाँ आ गए, किसी-किसी तरह आश्वासन देकर पिताजी उन्हें वैताढय पर ले आए। फिर पिताजी ने बहुत विद्याधर-कुमारों को आदेश दिया कि षट्खण्ड भरतक्षेत्र में, गाँव आकर, नगर में घूमकर यथाशीघ्र सुरसुंदरी का पता लगाओ। इस प्रकार वे लोग वहाँ से चले और पिताजी के आदेश से अनेक विद्याधर कुमार राजकुमार के साथ विनोद की बातें करने लगे । प्रिया विरह के शोक से कुमार जब किसी-किसी तरह दिन हस्तिशीस नगर में पहुँचा । पारणा के दिन भिक्षा के लिए नगर में घूम रहा था, इतने में दप्त सांढ से धक्का खाकर, मैं भूमि पर गिर पड़ा । पापी विमल के पुत्र मुझे उस स्थिति में देखकर बारबार हँसते हुए लाठी लेकर मुझे मारने के लिए मेरे पास पहुँच गए, उन्हें इस प्रकार देखकर मुझे भी क्रोध आया और अज्ञानदोष से एक खंभा उखाड़कर मैंने उनसे कहा कि सियार क्या, सिंह के बल को माप सकता है ? यह कहकर उन्हें मारकर यमलोक पहुँचाया । पश्चात्ताप से अनशन किया किंतु लज्जा से गुरु

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