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(१७५) रहते हैं ? और इस सागर में कैसे गिरे? तब उन्होंने कहा, धनदेव ? यदि आपको सुनने का कौतुक है तो एकाग्रचित्त होकर सुनिए
वैताढय पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रत्नसंचय नामक नगर में पवनगति-विद्याधरपुत्र बकुलावती की कुक्षि से उत्पन्न चित्रवेग नामक विद्याधरेंद्र चक्रवती हैं, अमितगति विद्याधरपुत्री कनकमाला उनकी भार्या है, उन्हींका पुत्र मैं मकरकेतु नाम का हूँ, क्रमशः बढ़ता हुआ मैं युवावस्था में आया। इधर वैताढय पर्वत की उत्तर श्रेणी में चमरचंच नामक नामक एक नगर है, भानुगति विद्याधर पुत्र चित्रगति विद्याधरराज उस नगर के स्वामी हैं, वे मेरे पिता के मित्र हैं, मैं भी उनका अत्यंत प्रिय हूँ, एक समय जब मैं चमरचंच नगर गया तो स्नेह से उन्होंने मुझे रोहिणी विद्या दी। सात महीने वहीं रहकर मैंने रोहिणी विद्या सिद्ध की। उसे सिद्ध करने में अनेक विभीषिकाएँ आईं किंतु मैं अविचल तथा निमय रहा, वहां से अपने नगर आने पर प्रसन्न होकर, पिताजी ने विद्याधरों के सामने मेरी प्रशंसा करते हुए कहा कि बाल्यवस्था में ही मेरे पुत्र ने अत्यंत रौद्र रोहिणी विद्या सिद्ध कर ली है, मैंने तो बालक समझकर इसे विद्याएँ नहीं दी थीं, किंतु जब इसने इतनी कठिन विद्या सिद्ध कर ली तो अन्य विद्याओं को सिद्ध करने में इसे कोई कठिनाई नहीं होगी, यह सोचकर शुभ दिन में सिद्धायतन में जिन-प्रतिमाओं का अष्टाहिन्हक महोत्सव करके सभी विद्याएँ देकर, उनका विधान बतलाकर उन्होंने मुझसे कहा कि रत्नद्वीप में विद्याधररचित युगादि देव-मंदिर में इन विद्याओं को सिद्ध करो। वहाँ जिन वंदन पूजन करके अन्य सर्वाविध व्यापारों से रहित होकर एक योजन में पंचेद्रिय जीवों की हिंसा नहीं होने देना । क्यों कि प्रमाद से भी हिंसा होने पर विघ्न होगा। यह कहकर पिताजी ने सर्व दोष निवारण के लिए अपनी अंगूठी देकर,