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(१९९) ईशान कल्प से च्युत होकर विद्युत्प्रभ देव इसी वैताढय की दक्षिण श्रेणी में रमणीय रत्नसंचयनगर में, बकुलावती देवी में पवन गति विद्याधर का पुत्र चित्रवेग नामक हुआ। देवी चंद्ररेखा भी च्युत होकर श्रीकुंजरावर्त नगर में अमितगति विद्याधर की प्रिय भार्या चित्रमाला की कनकमाला नाम को अत्यंत प्रियपुत्री हई। इधर सुलोचना आदि तीनों बहिनों का भाई वसूदत्त संसार में परिभ्रमण करके वैताढय पर्वत पर गंगावर्त में विद्याधरराज गधवाहन का मयनावली भार्या के नरवाहण नाम का पुत्र हुआ। उसके लिए कनकमाला का वरण हुआ, किंतु छल से चित्रवेग ने उसके साथ विवाह कर लिया। नरवाहण ने नागिनी विद्या से चित्रवेग को बांधकर, कनकमाला को अपने नगर ले आया । कनकमाला की इच्छा नहीं रहने पर भी वह उसके साथ रमण करना चाहता था, राजन् ? कनकमाला उसकी बहन थी? इस प्रकार अज्ञानांद्य जीव, बहन पुत्री पुत्रवधू माता के साथ भोग भोगना चाहता है, ऐसे संसारवास को धिक्कार है, राजन् ? धनदेव ने सारी बातें आप से बतला दी हैं, फिर एक देव ने चित्रवेग को कनकमाला प्राप्त करा दी, और अनेक विद्याओं देकर उसको विद्याधरेंद्र बना दिया। उसके बाद चित्रवेग वैताढय पर कनकमाला के साथ विषयसुख भोगता है, चंद्रार्जुन देव भी च्युत होकर वैताढय की उत्तर श्रेणी में चमरचंच नगर में चित्रगति नाम से उत्पन्न हुआ। चंद्रप्रभादेवी भी प्रियंगुमंजरी रूप में उसकी भार्या हुई, वह उसके साथ विषयसुख का उपभोग करता है, चित्रवेग ने विद्याओं के साथ उसे उत्तर श्रेणी दे दी। इस प्रकार विषयसुख का अनुभव करते हुए उन दोनों के बहुत समय बीत गए। एक समय कनकमाला के साथ चित्रवेग अष्टापद की वंदना करने