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(१९८) हुआ। सातवें महीने में दोहद पूर्ण करने के लिए कमलावती देवी हाथी पर नगर में घूम रही थी, उसी समय उस कालबाण देव ने उपयोग में आकर देवी को देखा । देखते ही वहाँ से आकर हाथी में प्रविष्ट होकर लोगों को खदेड़ते हुए वेग से भागा। राजन् ? वटवृक्ष की शाखा पकड़कर, आपके उतर जाने पर वह हाथी आकाश में उड़ने लगा, जब रानी ने मणि से हाथी को ताड़ित किया तब वह देव " मेरा शत्रु आकाश से गिरकर माता सहित मरेगा, यह सोचकर अपने स्थान को चला गया । देवी भी हाथी के साथ सरोवर के किनारे गिरी, उसके बाद श्रीदत्त सार्थवाह के साथ कुशाग्रपुर को चली। किंतु जंगल में सार्थ लुटने पर, उससे बिछुड़कर, जंगल में देवी ने पुत्र को जन्म दिया । कालबाण देव ने उपयोग से देख लिया और अत्यंत क्रोधित होकर फिर देवी के पास आ गया । “पाप ! आज तुम बहुत दिन के बाद मिले, आज मैं वैर का अंत करूँगा। अब तुम अपने पाप के फल को भोगो।" यह कहकर राजन् ? कमलावती की गोद से उसने आपके पुत्र का अपहरण किया। उस बालक को लेकर वह नीच सोचने लगा कि हाथ से मसलकर इसे मारूँगा, अथवा टुकड़े-टुकड़े करके मारूँगा, अथवा शिलातल पर पटककर मार डालूंगा । फिर उसने सोचा कि इस प्रकार मारने से इसे अधिक दिन पीड़ा नहीं होगी, अतः इसे किसी निर्जन स्थान में जाकर छोड़ दूं, जिससे कि भूख-प्यास से तड़प-तड़पकर मरेगा, यह सोचकर उसने वैताढ्य पर्वत के शिलातल पर, निर्जन स्थान में उसने आपके पुत्र को छोड़कर, अपने स्थान को प्रस्थान किया। राजन् ? यह कथा यहीं छोड़कर दूसरी कथा कहता हूँ