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के लिए चला, वहाँ भरतेश्वर रचित जिनेंद्र - प्रतिमाओं की वंदना करके, चलने पर वैताढ्य के निकुंज में देहकांति से दैदीप्यमान गले में बंधी अंगूठी से विभूषित आपके पुत्र को देखकर अंगूठी में मणि को देखकर आश्चर्यचकित होकर उसने कनकमाला से कहा, प्रिए ? यह तो वही मणि है जो मुझे पहले उस देव ने दी थी, अतः अवश्य इसकी माता ने रक्षा के लिए जनमते ही इसके गले में मणि बाँधी होगी । किसी ने अपहरण करके इसे यहाँ छोड़ दिया है, देवि ? आपको पुत्र नहीं था, इसे पुत्र रूप में लीजिए । यह अवश्य कोई देव जीव उत्पन्न हुआ होगा । उस बालक को लेकर राजन् ! दोनों अपने नगर में आए, वर्धापनक करके लोक में प्रकाशित किया कि गुप्तगर्भवाली कनकमाला को पुत्र उत्पन्न हुआ है । उचित समय पर उसका नाम मकरकेतु रक्खा । इस प्रकार राजन् ? आपका पुत्र विद्याधरेंद्र के घर में बढ़ा, इधर उसकी देवी स्वयंप्रभा देवलोक से च्युत होकर यह सुरसुंदरी उत्पन्न हुई । क्रमशः बढ़ने पर युवावस्था में आने पर जो विद्याधर इसे हरकर रत्नद्वीप ले गया, वह सुलोचना भव में इसका पिता हरिदत्त था, राजन् ? संसार की विरूपता देखिए, जहाँ पिता पुत्र के साथ भोग भोगना चाहता है, उसी कालबाण देव ने पिशाच रूप धारण करके, आपके पुत्र की विद्याओं को हरकर समुद्र में फेंक दिया, क्रोध में आकर सुरसुंदरी को भी जब आकाशमार्ग से ले जा रहा था, तब तक उसका च्यवन समय आ गया, वह च्युत हो गया और सुरसुंदरी आकाश से इस उद्यान में गिरी, मापके पुत्र ने धनदेव के प्रवहण को प्राप्त किया, उसके फूटने पर फलक लेकर जब वह समुद्र में तैर रहा था, इतने में प्रियंवदा ने उसे देखा और उसे अपने स्थान ले आई, राजन् ? आपके प्रश्न का उत्तर दे दिया, आपका पुत्र आज ही मिलेगा ।