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(१९५) पास दीक्षा ले ली। सुलोचना दोनों बहनों के साथ महत्तरा के पास विनयपूर्वक अनेक तप करने लगी। इस प्रकार चंद्रजसा के चरणमूल में उन तीनों के अनेक पूर्वलक्ष बीत गए । धनवाहन साधु के साथ मुनि कनकरथ के भी करोड़ों वर्ष बीत गए। इसके बाद अनशन करके, कालधर्म प्राप्त कर सुधर्मसूरि द्वितीय कल्प में चंद्रार्जुन विमानाधिपति शशिप्रभ नामक देव बनें । धनवाहन मुनि भी कालधर्म पाकर वित्धुप्रभ नामक उनके सामाजिक सुर बनें । अनंगवती उनकी चंद्ररेखा नामक देवी हुई, वसुमती भी चंद्रार्जुन देव की भार्या चंद्रप्रभा नामक देवी हुई।
इधर वह सुबंधु दयिता वियोग में अत्यंत संतप्त होकर गाँव, नगर, जंगल में कहीं भी शांति नहीं प्राप्त कर कनकरथ को मारने का उपाय सोचने लगा । सतत दयिता का स्मरण करके वह ग्रहग्रहीत जैसा हो गया। उसने घर छोड़ दिया । उद्यान, जंगल में घूमने लगा। " सुंदरि ? क्यों रुष्ट हो गई ? जल्दी दर्शन नहीं देती हो ? हाँ हाँ, तुम को मैंने देख लिया, प्रसन्न हो, उत्तर दो।" इस प्रकार विलाप करता हुआ वह नगर छोड़कर उन्मत्त होकर अनेक गाँव, नगर में घूमता हुआ किसी तरह एक तापसाश्रम में पहुँच गया । जब उसका चित्त कुछ स्वस्थ हुआ तब कुलपति ने उसे तापस दीक्षा दे दी । उग्र तपस्या करके मरकर वह अम्बरीष नामक अत्यंत अधर्मी देव बन गया। विभंग ज्ञान से पूर्व वैर को जानकर वह अपने वैरी कनकरथ का चिंतन करने लगा। __अनुरक्त मुझे छोड़कर कनकरथ में आसक्त वह दुःशीला ही प्रथम शत्रु है । उन दोनों ने मुझे दुःख दिया था, अतः वे दोनों ही मारने लायक हैं, यह सोचकर वह वहाँ पहुँच गया, जहां कनकरथ मुनि संलेखना से शरीर शोषण कर रहे थे। श्मशान में