Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 191
________________ (१८० ) अस्त्रों के प्रहार से प्राकार क्षत-विक्षत होकर रोमांचित जैसा दीखने लगा। उसके सैनिक परिखा को भरकर जहाँ-तहाँ के आवरणों को जलाने लगे । इस प्रकार शत्रु सेना से जब नगर के लोगों तथा सैनिकों को विव्हल देखा, तब मैं हाथ में तलवार लेकर हाथी पर चढ़े शत्रुंजय के पास पहुँच गया । मैंने कहा, अरे दुष्ट ? तू अकारण मेरी दयिता के पिता को पराभव दे रहा है, अथवा विनाश के समय बाँस वृक्ष में फल आ जाता है। अब पुरुषार्थ दिखा । यह कहकर उसका बाल पकड़कर मैंने उसका सिर काट डाला । उसका सिर कटते ही उसकी सेना हताश होकर भागने लगी । मैं उसका सिर लेकर चिंतित राजा नरवाहन के पास पहुँचकर, उनके आगे शत्रुंजय का सिर रखकर, उन्हें प्रणाम करके पहले की सारी बातें उनसे कहकर धनदेव ? मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी कन्या लाकर दे देता हूँ, यह कहकर मैं प्रिया के मुखचंद्र को देखने की उत्कण्ठा से उड़कर जब तक इस प्रदेश में पहुँचा तब तक मैंने एक पिशाच को देखा । उसकी जांघ ताल वृक्ष के समान थी । स्याही के समान उसका शरीर काला, अत्यंत भयंकर लम्बी बाँहें थीं। होंठ से उसके दाँत बाहर निकले थे, जुगनू के समान उसकी आँखें चमक रही थीं, उसकी जिव्हा मुख से बाहर लपलपा रही थी । उसकी नाक अत्यंत मोटी तथा चिपटी थी । और वह अत्यंत संताप देनेवाला था । अपने आस्फोट से गर्जन से, अट्टहास से, गगन को शब्दमय कर रहा था, उसने मुझसे कहा कि अरे ! रे ! उस समय मेरी दयिता का अपहरण करके जो तूने मुझे दुःख दिया था । उस वैर का मैं आज अंत करूँगा । अब देख लिया तुझे, अब तू कहाँ जाएगा ? रे शत्रु ! तेरे बाल्यकाल में तू किसी तरह बच गया, अभी नहीं बचेगा, कारण मैं तुझे समुद्र में

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