Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 190
________________ लगी थी। मैंने कहा था कि अमर मुझमें कुछ शक्ति होगी तो उसके संगम से बहन को अवश्य सुख पहचों मी। इस प्रकार प्रियंवदा जब उसके सिंबंध में बात कर रही थीं, इतने में उसकी मर्छा टूट गई, अपनी गोद से उसे प्रियंवदा के पास रखकर विघ्ने दूर करने के निमित्त जिनेश्वर की पूजा के लिए चला, वहाँ जाकर विधिपूर्वक जिन-पूजा जिन-वंदना करके वहाँ के देवतागों के मंत्रों का जाप करके, स्तुति पाठे करके, कायोत्सर्ग करके, फिर वहाँ से जब मैं प्रियंवदा के पास आया, तब तक वह रो रही थी। मैंने प्रियंवदा से उसके रोने का कारण पूछा, उसने कहा कि इसी के कारण प्रबल शत्रु ने इसके पिता के ऊपर आक्रमण कर दिया है, अतः चिता से यह रो रही हैं। मैंने कहा कि मेरे जीते जी कौन तुम्हारे पिता को पिराभव दे सकता हैं ? यह कहकर हाथ में वसुनंदक तलवार लेकर अकेले ही चलने का विचार किया । उसको प्रियंवदों के साथ वहीं रहने के लिए कह दिया और कहा कि जैव तक मैं आता हूँ तब तक यहीं रहना, इस प्रकार कहकर मैं आकाशमार्ग से कुशाग्रपुर पहुँच गया। वहाँ बड़े-बड़े वीरों से प्रकार की रक्षा की जा रही थी। बड़े-बड़े प्रासादों से नगर सुंदर लगता था। अट्टालिकाओं पर ध्वज फहरा रहे थे। जहाँ-तहाँ तोप लगाए हुए थे। वीरों की मर्जना से कोलाहल हो रहा था, मैं ऊपर सही वहाँ का दृश्य देख रहा था । इतने में नरकांविनाश करने के लिए मालव राज शत्रुजयं की सेना बढ़ी शत्रुमैथ की सेना मिरज रही थी पित्थरों सपरिन्किोमिरेने की कोशिश कर रही थीं। नश्वाहन के सिमिकों के माला बादि अस्त्रों से कटकारशिया सैनिकी मिनारहे थे इमि में रोषालामाश ममय अमकी समित धीराधाकार काकासा छमानिना को लो आएन अमको

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