Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 187
________________ (१७६) थोड़े परिजन के साथ मुझे रत्नद्वीप भेज दिया और छ: महीने बीतने के पहले ही बहुरूपा, प्रज्ञाप्ति, गौरी, गांधारी, मोहिनी, उत्पादनी, आकषणी, उन्मोचनी, उच्चाटनी, वशीकरणी आदि विद्याओं को मैंने सिद्ध कर लिया। इतने में रात के पिछले पहर में एकाएक पृथिवी काँपने लगी। दिग्गज गरजने लगे, आकाश प्रकाशित हो गया, पंचभूत मानो हँसने लगे, उसके बाद सुगंधित कोमल हवा बहने लगी । दिव्यकुसुम वृष्टि होने लगी। इतने में अपने-अपने नाम से अकिंत विचित्र चिन्धोंवाली अनेक अलंकारों से अलंकृत, विचित्रवाहन पर आरूढ विचित्र वेशवाली, एक दूसरे के वर्षों से अत्यंत दैदीप्यमान स्वरूप अनेक स्त्रियाँ प्रकट हुई, उन्होंने कहा, हम तुम्हारी विद्याएं सिद्ध हो गई हैं, उनके वचन सुनकर प्रसन्न होकर उनकी यथोचित पूजा की, विद्या सिद्धि के समाचार प्राप्त कर बड़े आडम्बर के साथ अनेक बाजाओं से युक्त अष्टान्हिका पूजा के सामान को लेकर वैताढ्य से मेरे पिताजी भी वहाँ आ गए, युगादिदेव जिन-मंदिर में भक्ति से महामहिमा करके प्रयत्न से यथाविधि सर्व विद्याओं की पूजा कर के निर्मल पवित्रतीर्थ जल से जिन-प्रतिमाओं का स्नपन करके विद्याधरों को दान देकर पूजनीयों का पूजन माननीयों का संमान करके सुंदर गीतनृत्य आदि के द्वारा अष्टान्हिनका महोत्सव करके पटह भेरी भंभा दुंदुभि आदि बाजाओं की आवाज़ में दिशाओं को भरते हुए सुरकिन्नरों को आश्चर्यचकित करते हुए जिनेंद्र-मंदिर में जागरण करके सकल परिवार सहित वैताढय पर आ गए, किसी विशेष कार्य से मैं वही रह गया । जिन-पूजन जिन-वंदन करके सूर्योदय होने पर शरीर चिंता के लिए मैं बाहर निकला। शरीर चिंता करके वहाँ से कुछ आगे बढ़ने पर मैंने बाँस के वन में भूमि पर

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