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(१७०) क्यों नहीं ? इतने में भयंकर मुखवाले काले पिशाच को देखा, उसकी आवाज बड़ी कठोर थी। अपने भीषण स्वरूप से मानो मुझे फटकारता था। अग्निज्वाला के समान उसका बाल पीला था।
उसके बड़े-बड़े दाँत-होंठ फाड़कर बाहर निकले थे, मरुकूप की तरह भयंकर उसकी आँखें थीं। वह मनुष्य के मुंडों की माला पहने हुए था । अपने भीम अट्टहास से सभी प्राणियों को डरा रहा था। उसने मुझ से कहा, पापिन ! उस समय परपुरुष में आसक्त होकर परदार लोभी उस पापी पुरुष के साथ संबंध करके मुझे दुःख दिया था। उस पुरुष को तो उस पाप का फल मिल गया, अब तुम अपने पाप-फल को भोगो । यह कहकर हंसिनि ! भय से काँपती हुई मुझे पकड़कर सीधे आकाश में उड़ गया ।
और कठोर वचन से मुझे फटकारने लगा। उसकी निंदा करती हुई प्रियंवदा भी पीछे-पीछे चली किंतु भीषण हुंकार से उसे मच्छित करके मुझे बहत दूर ऊपर ले जाकर उस पापी ने मुझे इस तरह गिराया कि यह चूर-चूर होकर मर जाए। किंतु भाग्यवश मैं इस उद्यान में लताओं पर पड़ी। समंतभद्र ने मुझे देखा
और मुझ से मेरा वृत्तांत पूछा, मैं मन में सोचने लगी कि क्या यह इंद्रजाल है ? अथवा मैं स्वप्न देख रही हूँ ? कहां आ गई हूँ ? वह बेताल कहाँ चला गया ? प्रियंवदा को क्या हुआ ? इसी पापी बेताल ने मेरे वल्लभ को भी अनिष्ट किया होगा, मुझे लगता है इसीलिए वे अभी तक आए नहीं थे । अथवा थोड़ी सेनावाले मेरे पिताजी को शत्रुजय ने क्या किया होगा ? मैं उस समय यही सब सोच रही थी, अतः बार-बार पूछने पर भी समंत