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में मैंने वह अंगूठी लाकर दी । उस मणि के जल से आपके ऊपर सिंचन किया, आपके संबंध में ही मैं बात कर रही थी, इतने में आप स्वस्थ हो गई । इस प्रकार सुरसुंदरि ! आपने मुझे जो पूछा, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब आपका इष्ट भी सिद्ध हो
गया ।
फिर उसने कहा कि दैव यदि अनुकूल होता है तो द्वीपांतर से समुद्रमध्य से दूर देश से भी इष्टजन को ला देता है, उसके बाद मैंने कहा कि यह तो ठीक हैं किंतु मेरे लिए पिताजी को प्रबल शत्रु शत्रुंजय राजा ने चारों ओर से घेर लिया है । अतः प्रिय का दर्शन होने पर भी मेरा चित्त शोक संतप्त है । तो फिर मुझ अभागिन के लिए दैव अनुकूल कैसे ? यह कहकर हंसिनी ! मैं शोकावेग में रोने लगी । इतने में उसका भाई कृतकार्य होकर वहाँ आ गया । उसने पूछा, प्रियंवदे ! तुम्हारी बहन क्यों रोती है ? तब प्रियंवदा ने सारी बातें बतला दीं, इसके बाद उसने कहा, सुंदरि ! रोओ मत, आज ही जाकर तुम्हारे पिता के शत्रु को यमराज के मुख में भेज रहा हूँ, मेरे जीते जी सुंदरि ? तुम्हारे पिताजी को कौन पराभव दे सकता है ? अतः मैं जाता हूँ, प्रियंवदा सहित यहीं प्रथम जिनेश्वर के मंदिर में तब तक रहो, जब तक मैं शत्रुंजय को मारकर आता हूँ, यह कहकर हाथ में वसुनंद तलवार लेकर वह उड़ गया और मैं प्रियंवदा के साथ उसी जिन-मंदिर में उस दिन रही । अत्यंत अनुराग से उसके आने का चिंतन कर रही थी कि अभी तक उस दुराचारी शत्रुंजय को मारकर मेरे प्रिय क्यों नहीं आए ? दिन बीत जाने पर रातभर यही चिंतन कर रही थी कि विद्या प्रतापवान होकर भी वे अभी तक आए