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तेरहवाँ - परिच्छेद
उसके बाद हंसिका ने कहा कि आपने अत्यंत दुःसह दुःख का अनुभव किया है, जिसको सुनने से भी भय उत्पन्न होता है, प्रियसखि ! आप ऐसे दुःखों के योग्य नहीं है, फिर भी कर्म की गति विचित्र है, उसकी महिमा से सुखी से सुखी जीव दुःख का अनुभव करते हैं और दुःखी से दुःखी जीव सुख का अनुभव करते हैं, सुरसुंदरि ! इस प्रकार कर्म की विचित्रता को जानकर आप थोड़ा भी दुःख नहीं करें, दूसरी बात यह है कि जैसे लक्षण आपके शरीर में दिखते हैं इनको देखने से लगता है कि आप अवश्य विद्याधरराज की पत्नी होनेवाली हैं, कुशाग्रनगर से आए मनुष्य के द्वारा कमलावतीदेवी के आगे की गई बात मैंनें सुनी है कि शत्रुंजय राजा ने जब नगर को घेर लिया तथा सामंतसहित नरवाहन राजा के प्राण संकट में पड़ गए, तथा मारे गए, सुमटों के खून से नगर में पंक-पंक हो गया, इतने में एकाएक हाथ में तलवार लिए एक विद्याधर वहाँ पहुँच गया और अपनी तलवार से उसने हाथी पर चढ़े शत्रुंजय राजा का सिर काट डाला, उसको मारकर नरवाहन राजा के पास जाकर उस विद्याधर ने कहा कि राजन ! आपका शत्रु मारा गया । एक विद्याधर से अपहरण की गई रत्नद्वीप में स्थित आपकी पुत्री सुरसुंदरी के वचन से मैं यहाँ आया हूँ, मैं श्री चित्रवेग विद्याधरेंद्र का पुत्र मकरकेतु नाम का हूँ, आपकी
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