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दीं, सुनकर वे अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि मेरी पुत्री का अनुराग योग्य वर से हुआ, अथवा राजहंसी राजहंस को छोड़कर अन्यत्र रमती ही नहीं, अनेक विद्याओं से संपन्न उसीको मैं अपनी कन्या दूँगा, भानुवेग विद्याधर मेरे पास सतत आते ही हैं, उनके द्वारा यह कार्य अनायास हो जाएगा । पिताजी के इस प्रकार कहने पर प्रसन्न होकर मेरी माता ने श्रीमती से कहा कि श्रीमति ! तुम जाकर मेरी पुत्री से कहो कि " सुरसुंदरि ! इस विषय में थोड़ी भी चिंता करने की आवश्यकता नहीं" श्रीमती ने आकर मुझसे सारी बातें कीं, मैं भी अत्यंत प्रसन्न हो गई और चिंतन करने लगी कि कब वह दिन आएगा जब उनका दर्शन होगा, उनके संगम की आशा से अपने मन को शांत करके दिन बिताने लगी ।
इतने में एक दिन गेरुआ वस्त्र धारण किए, हाथ में चामर लिए, गोरोचना तिलक लगाए, नास्तिक दर्शनों में निष्णांत एक तापसी आई, आशीर्वाद देकर मेरे पास बैठकर वह कहने लगी कि अपनी इच्छा के अनुसार उपभोग करना चाहिए, क्यों कि इस लोक के सिवाय स्वर्गनरकादि कुछ है ही नहीं, परलोक के लिए जो मुंडनादि करते हैं वे तो धूतों के द्वारा विषय-सुख से वंचित कर दिए गए हैं । देह से अतिरिक्त जीव पदार्थ नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से जीव का ग्रहण नहीं होता है और प्रत्यक्ष से अन्य दूसरा प्रमाण है ही नहीं, प्रत्यक्ष से अतिरिक्त अनुमानादि प्रमाण मानने पर भी जीव सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्ष पूर्वक ही होता है, लोगों को ठगने के लिए धूर्तों ने शास्त्रों की रचना की है, इसलिए पंचभूत समुदय रूप ही जीव है, जीव सिद्ध नहीं होने पर लोग की भी सिद्धि नहीं हो