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(१६२) हैं ? पिताजी ने कहा कि आपने ठीक ही समझा, अब मैं अपनी चिंता का कारण बतलाता हूँ, सुनिए
सुरसुंदरी ने जिस बुद्धिला परिवाजिका को बाद में जीता था, द्वेषवश उसने चित्रपट पर इसका रूप लिखकर, उस चित्रपट को लेकर उज्जयिनी में शत्रुजय राजा के पास जाकर राजा को दिखलाकर, उस दृष्टा ने कहा कि राजन् ! मैं आपके कार्य से पृथिवी पर घूमती हूँ जिस रत्न को देखती हूँ, आपसे कहती हूँ, अभी मैंने कुशाग्रपुर नगर से एक कन्यारत्न को देखा है, नरवाहन राजा की कन्या सुरसंदरी का यह चित्र लाई हूँ, आप इसे अपनी भार्या बनाइए। दूसरी बात यह है कि उसके जन्म समय में विशिष्ट ज्ञानियों ने कहा था कि जो इस कन्या के साथ विवाह करेगा, वह भरतार्द्ध का स्वामी होगा, इसमें कोई संदेह नहीं, अतः राजन् ? वह कन्या आप ही के योग्य है। राजा ने बहुत द्रव्य देकर उस तापसी को विदा किया, सुंदरी? यह बात मुझे गुप्तचरों ने बतलाई है, उसके बाद उसने अपने मंत्री रत्नचूड़ को मेरे पास भेजा, मंत्री ने आकर मुझ से कहा कि आप अपनी कन्या शत्रुजय राजा को दीजिए, मैंने कहा, भद्र ? नैमित्तिक सुमति के वचन से मेरी लड़की विद्याधर की प्रिया होगी, अतः मैं विद्याधर के साथ इसका विवाह करूँगा, इसपर उसने कहा कि मुझे बड़े आग्रह से आपके पास भेजा है, यदि आप उन्हें अपनी कन्या नहीं देंगे तो आपके लिए अच्छा नहीं होगा, उसकी बात सुनकर क्रोध से मैंने कह कि मैं उन्हें अपनी लड़की नहीं दूंगा। उन्हें जो इच्छा हो करें, तुम तो मेरे घर पर आए हो, तुम को क्या दण्ड दूं ? मंत्री ने जाकर उनसे कहा और वे अपनी सेना लेकर मेरे ऊपर आक्रमण करने आ रहे हैं, लाखों घोड़े, लाखों हाथी, लाखों रथ तथा लाखों पैदलवाली चतुरंगिणी सेना के साथ