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वाली मूर्च्छा से बंद आँखोंवाली एक बालिका को देखा । तब मैंने विचार किया कि आकाश से भूमि पर इसके गिरने की ही वह आवाज़ थी । ऐसी सुंदरी को ऐसा दुःख देनेवाले विधाता के आचरण को धिक्कार है, यह सोचकर मैंने शीतल जल पवन आदि उपचार से उसको स्वस्थ किया । यूथभ्रष्ट हरिणी की तरह वह चारों ओर देख रही थी । मैंने कहा, भद्रे ? तुम क्यों डरती हो ? किसी प्रकार का भय मत करो, मैं तुम्हारे पिता के समान हूँ, तुम कौन हो ? कहाँ से यहाँ गिरी ? मुझे बताओ, सुंदरि ? शापवश स्वर्ग से गिरी कोई देवांगना हो ? या भ्रष्ट विद्या कोई विद्याधर बालिका हो ? अथवा तुम्हारे रूप को देखकर मोह से पकड़नेवाले किसी विद्याधर के हाथ गिर गई हो ? मेरे मन में बड़ा कौतुक है, आकाश से तुम इस उद्यान में क्यों गिर गई हो ? मुझे बताओ, राजन् ? मेरी बात सुनकर भी जब कुछ उत्तर नहीं दिया और उसने आँसू बहाना शुरू किया तब मैंने मन में विचार किया कि सुमति नैमित्तिक का वचन सत्य हुआ, इससे अब कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं है, सीधे राजासाहब से जाकर यह समाचार कह दूं, ऐसा सोचकर मधुर वचनों से आश्वासन देकर, अपने घर ले जाकर, अपनी भार्या को समर्पित करके अपने परिजन को परिचर्यां में नियुक्त करके मैं आपके पास आया हूँ, समंतभद्र से कन्या का समाचार सुनकर राजा अत्यंत चकित हो गए, और हर्ष में आकर उन्होंने कहा कि सुमति नैमि - त्ति का वचन सत्य निकला । अब शीघ्र पुत्र का दर्शन होगा, हे समन्तभद्र ? उस कन्या को शीघ्र लाओ, उसी के प्रभाव से पुत्र को देखूँगा, समंतभद्र ने जाकर कन्या को राजा के पास ले आया, उसके रूप को देखते ही राजा ने कहा कि यह तो किसी उत्तम