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हाथी तो आकाश में उड़ नहीं सकता। यह सोचकर अब मैंने भूमि की ओर देखा तो मुझे लगा कि मुझे इस जंगल में अकेली जानकर मेरी सहायता के लिए सभी वृक्ष भी मेरे पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं, जल से भरे सरोवर भमि पर पड़े छत्र जैसे लगते थे, वनराजियाँ साँप जैसी लगती थीं। बड़ी-बड़ी नदियाँ नहर जैसी दीखती थी, बहुत दूर जाने पर मुझे अंगूठी की याद आई, तब कुछ भय छोड़कर, हाथ में मणि लेकर हाथी के कुंभस्थल को पीटा । मानो वज्र से ताड़ित होकर हाथी नीचे की ओर मुड़ा। मैंने नीचे तरंगों से पूर्ण एक सरोवर को देखा । अनेक प्रकार की मछलियाँ उछल रही थीं, भौंरे से आच्छादित कमल सुशोभित हो रहे थे। टिट्टिमचक्रवाक आदि अनेक प्रकार के पक्षी कलरव कर रहे थे, मकर आदि अनेक दुष्ट जलजंतु दिख रहे थे, मराल पंक्तियाँ, बक पंक्तियाँ शोभ रही थीं, सरोवर के चारों ओर तमाल वृक्ष सुशोभित हो रहे थे। जल से भरे अन्तर पार उस सरोवर में गिरा
और डूब गया । मैं मणि के प्रभाव से जल के ऊपर ही रह गई, एक काष्ठ फलक के सहारे मैं सरोवर के किनारे आ गई। भयभीत होकर मैं सोचने लगी कि उस प्रकार की समृद्धि से युक्त होने पर भी मैं आज एकदम अकेली कैसे हो गई। कर्म की गति अत्यंत विचित्र है । वे भृत्यवर्ग, विनीत परिवार आज कहाँ चले गए ? इस प्रकार सोचकर उत्तरीय वस्त्र से अपना मुँह ढंककर मैं रोने लगी।
इतने में किसी ने मुझ से कहा, सुंदरि ? क्यों रोती हो ? मैंने वेग में आकर उसकी ओर देखा तो वह युवक मुझे कुछ परिचित जैसा लगा । मुझे देखते ही वह वेसर से उतरकर मेरे पैरों पर गिरकर बोला, बहन ? मुझे पहचानती हो, मैं श्रीदत्त