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नहीं हैं ? राजा ने पूछा, आप कौन हैं ? कहाँ से आए हैं ? दव न कहा, राजन् ? यदि कौतुक है तो सुनिए__मैं ईशानकल्पवासी देव हूँ, च्यवन का समय नजदीक आने पर परलोक हित के लिए तीर्थंकर की वंदना के लिए विदेह में आया, वहाँ मैंने भगवान से पूछा कि च्यवन होने पर फिर मेरा जन्म कहाँ होगा ? तब तीर्थंकर ने कहा कि भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नगर में पुत्र की इच्छा से पौषधशाला में पौषध लिए श्री अमरकेतु राजा हैं, आप उनके पुत्र होंगे, उनका वचन सुनकर राजन ? मैं आपके पास आया हूँ, अब आप चिंता न करें, मैं आपका पुत्र होऊँगा, राजन ? आप यह कुंडल स्वीकार करें, जिस देवी से पुत्र चाहते हों उन्हें यह कुंडल दे दीजिए, यह कहकर कान से कुंडल उतारकर राजा को देकर, वह देव अदष्ट हो गया। रात बीतने पर देवी के पास जाकर बड़ी प्रसन्नता से राजा ने देवदर्शन से लेकर सभी बाते की, रानी को कुंडल देकर प्रातःकृत्य करके आहारदान से साधुओं का सत्कार करके राजा ने भोजन किया। इसके बाद दूसरे दिन ऋतुस्नातादेवी ने रात के पिछले पहर में स्वप्न देखा । उसका शरीर कँपने लगा, राजा ने पूछा, एकाएक शरीर क्यों कैंपता है ? रानी ने कहा, प्रियतम ? अभी मैंने एक स्वप्न देखा है कि एक सुवर्णकलश मेरे मुख में प्रविष्ट होकर बाहर निकला है । कोई उसे फोड़ने के लिए दूर ले जाता है, फिर बहुत समय के बाद दूध से भरे उस कलश को प्राप्त कर सफेंद फूलों की माला से मैंने उसकी पूजा की। इस प्रकार आरंभ में दुःखदाई किंतु परिणाम सुखद स्वप्न को देखने से मेरा शरीर कँप रहा है, रानी की बात सुनकर शोकित होते हुए राजा ने कहा, देवि ? यह स्वप्न पुत्र लाभ का सूचन करता है । स्वप्न