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रानी अत्यंत खिन्न हो गई, मत्ता मूच्छिता ध्यानस्थ योगिनी की तरह सभी कार्य से विरत हो गई, उसका शरीर अत्यंत दुबला हो गया, मुख मलिन हो गया, राजा ने उसकी स्थिति देखकर पूछा कि देवी ? आपका शरीर इतना दुर्बल क्यों हो रहा हैं ? स्वाधीन मुझ सेवक के रहते आपकी कौनसी इच्छा पूरी नहीं हो रही है ? आँसू के जल से स्तन को सींचती हुई रानी ने कहा, प्रियतम | आपकी कृपा से मेरी सभी इच्छाएँ पूर्ण हैं, कोई ऐसा सुख नहीं जो आपकी कृपा से मुझे प्राप्त न हुआ हो, किंतु एक पुत्रदर्शन - सुख मुझे स्वप्न में भी प्राप्त नहीं हो रहा है । वे ही स्त्रियाँ धन्य हैं जो स्तन्यपान करते अपने पुत्र का मुख दिन-रात देखती हैं, मुझसे पीछे श्रीकांता का विवाह हुआ किंतु उसको पुत्र उत्पन्न हुआ, अतः देव ! आप मुझे पुत्र दें नहीं तो मैं प्राणत्याग करूँगी । राजा ने कहा, देवि ! इसके लिए आप चिंता न करें, देवता की आराधना करके मैं अवश्य आपका मनोरथ पूर्ण करूँगा । यह कहकर जिनेंद्र - प्रतिमा की पूजा करके सभी आभूषणों को छोड़कर सफेद वस्त्र धारण करके पौषधशाला में जाकर विधिपूर्वक अष्टमभक्त लेकर, कुशासन पर बैठकर, राजा इस प्रकार कहने लगे कि जिन- शासन में भक्ति रखनेवाले देव या दानव जो सन्निहित हों, शीघ्र आकर मेरा मनोरथ पूर्ण करें, इस प्रकार चिंतन करते हुए राजा जब तीन दिन तक वहाँ रहे तब रात के चौथे पहर में अपनी कांति से अंधकार समूह को नाश करनेवाले एक पुरुष को देखकर राजा सोचने लगे कि मनुष्य के शरीर में ऐसी कांति हो नहीं सकती, इनके चरण भी पृथ्वी का स्पर्श नहीं करते अतः ये अवश्य देंव होंगे, इस प्रकार विकल्प करते हुए राजा से उस देव ने कहा, हे अमरकेतु राजन ! उग्र तप से क्या आप क्लांत