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गए मैं कुछ नहीं जानता हूँ, धनदेव ने सम्यक्त्व व्रत देकर पंचनमस्कार मंत्र सुनाया, भाव से वह बार-बार मंत्रोच्चारण करने लगा । इतने में आदमी पानी लेकर आ गया, पानी पीकर वह मर गया । धनदेव ने दुःखी होकर उसका अग्नि- संस्कार किया । अपने आदमियों से सुप्रतिष्ठ का अन्वेषण करवाया । कहीं नहीं मिलने पर धनदेव बहुत दुःखी हो गया, उसने दैव के आचरण की तथा संसार की बड़ी निंदा की। सुप्रतिष्ठ कहाँ चले गए ? जीते है या नहीं इत्यादि सोचते हुए अपने सार्थ में आकर क्रमश: हस्तिनापुर पहुँच गया। माता-पिता, बंधु, मित्र-परिजन सब अत्यंत प्रसन्न हुए । सुंदर दिन में बंधु का अपने घर में प्रवेश कराया गया। पूर्व स्नेह से श्रीकांता सासु की आज्ञा लेकर अपने परिजन के साथ कमलावती के पास गई । अत्यंत स्नेह से उठकर कमलावती ने उसका आलिंगन किया और कहा कि बहुत दिन के बाद तुम को आज देखा, अच्छा हुआ जो तुम भी यहीं आ गई, देवी ने उसका उचित सत्कार किया। बैठकर दोनों ने कुशल-क्षेम के बाद बहुत बातें कीं, कुछ देर बातचीत करने के बाद श्रीकांता ने कहा कि अभी मैं अपने घर जाती हूँ, कमलावती ने कहा कि रोज आना | श्रीकांता ने ' ऐसा करूंगी' यह कहकर वहाँ से प्रस्थान किया और अपने घर आई । श्रीकांता को श्वशुर कुल मेंकमलावती के साथ बातचीत तथा धनदेव के साथ विषय-सुख का अनुभव करने में करोड़ों वर्ष बीत गए । एक समय ऋतुस्नान करके स्वामी के साथ सोई हुई उसने रात के पिछले पहर में स्वप्न देखा । देखते ही जग गई और उसने कहा कि प्रियतम ! मैंने अपने मुख में चंद्र को प्रवेश करते देखा है । और देखते ही
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