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चित्रवेग के अंग शिथिल पड़ गए, मानो वह वज्राघात से चूरचूर न हो गया हो, सर्प से ग्रसित न हो, राक्षस से गृहीतन हो, मुद्गर से ताडित न हो इस प्रकार दीर्घ निश्वास लेकर, मूच्छित होकर पृथिवी पर गिर पड़ा, उसकी उस अवस्था को देखकर उस देव ने शीतल जल लाकर उसके शरीर को सींचा, मैंने भी अपने उत्तरीय वस्त्र से पवन दिया । एक क्षण के बाद मूर्छा टूट गई किंतु फिर मूच्छित हो गया । किंतु किसी-किसी तरह जब वह कुछ स्वस्थ हुआ और आँसू बहाते हुए मुख को नीचा कर बैठ गया तब उस देव ने बहुत समझाया कि एक स्त्री के लिए आप इतना शोक क्यों कर रहे हैं ? सुंदर? अनंत संसार में परिभ्रमण करने वाले जीवों को संयोग-वियोग सौ-सौ वार होते रहते हैं इसलिए विद्वानों को चाहिए कि इष्ट संयोग में हर्ष तथा इष्ट वियोग में विषाद नहीं करें।
पूर्वभव में श्रमणत्व प्राप्त करने पर भी आपने जो अनुराग नहीं छोड़ा उसके प्रभाव से स्वर्ग में भी आप तेजबलहीन रहे और इस जन्म में भी वियोग दुःख को प्राप्त किया, फिर भी आप उसके ऊपर अनुराग नहीं छोड़ते, इन दुःखों का कारण वह राग ही तो है, देव की बात सुनकर चित्रवेग ने कहा, सुरवर ? मेरी दाईं आँख फड़कती है, आपका मुख भी प्रसन्न दिखाई देता है अतः यदि आप अन्य जन्म के मेरे मित्र हैं तो यथार्थ बतलाइए कि वह जीती है या मर गई ? जल्दी उसका दर्शन कराइए, नहीं तो अब मैं जी नहीं सकता, तब देव ने कुछ हँसते हुए कहा, भद्र ! आप पीछे देखिए, आपकी प्रिया खड़ी है, जब उसने पीछे की ओर देखा तो उसे विभूषित अंगोंवाली अपनी प्रियतमा का दर्शन हुआ, फिर अपने मन में शंकित होते हुए चित्रवेग ने कहा कि सुरवर