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किंतु उसके दीन-वचन को सुनकर कँपते हुए शरीर को देखकर कुमार को दया आ गई, उसने अपराधी कपिल से कहा कि नीच ! तुझको जीवित छोड़ दिया जाता है किंतु तू मेरे देश को छोड़कर दूसरे देश में जाकर रह । युवराज की बात सुनकर वह वहाँ से भागा और दूर देश में भीलों की पल्ली में जाकर रहने लगा । एक समय पद्म राजा ने अपने पुत्र को राज्य देकर युवराज के साथ गुरु के पास दीक्षा ले ली, गुरुसहित दोनों भाई विहार करते हुए एक सार्थ के साथ रत्नपुर को जा रहे थे, दोनों भाई सार्थ से भ्रष्ट होकर घूमते हुए पानी पीने के लिए एक पल्ली में आए । कपिल ने इनको पहिचान लिया । समरकेतु मुनि को देखकर उसे बड़ा क्रोध आया। उसने मन में सोचा कि इस पापी ने मुझे वाद में जीतकर देश से निकाल दिया, अतः किसी छल से इसे अवश्य मारना चाहिए । यह सोचकर उसने अत्यंत विनय से उनकी वंदना की और अपने घर ले जाकर विषमिश्रित अन्नजल देकर विनयपूर्वक कहा कि भगवन् ! आप बहुत थके हुए हैं अतः घर के एक भाग में एकांत स्थान में भोजन करके विश्राम कीजिए और प्रातः काल यहाँ से विहार करें । उसकी बात सुनकर कुछ देर विश्राम करके स्वाध्याय करने के बाद ज्यों ही वे भोजन करने के लिए तैयार हुए मुनि अनुकंपा से सन्निहित देवता ने विष हर लिया, भोजन करके वे फिर स्वाध्याय करने लगे । तब कपिल ने मन में सोचा कि ये लोग विष से नहीं मरे, क्यों ? हो सकता हैं मंत्रबल से इन्होंने विष की शक्ति नष्ट कर दी हो। इसलिए रात में इन्हें अवश्य मार डालना चाहिए क्यों कि इनके जीतेंजी मेरे चित्त में शांति नहीं आएगी रात में स्वाध्याय कर सो जाने पर हाथ में तलवार लेकर उनको मारने के लिए तैयार हुआ ।