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कुछ असम्बद्ध उत्तर दिया, उसकी बात सुनकर दया वशीभूत होकर उन दोनों को सुधर्म सूरि के पास ले गई, और उसने कहा, भगवन् ! यह हमारी बड़ी बहन है, यह क्यों पागल हो गई हैं ? गुरु ने कहा, यह वही सुलोचना है और यह वही राजकुमार कनकरथ है, ईर्ष्यावश क्रोध में आकर एक सपत्नी ने सोए हुए इन दोनों के सिर पर उन्मादकारी चूर्ण छींट दिया । उसी से इन दोनों को उन्माद हो गया । राजा ने मांत्रिक-तांत्रिक को बुलाकर बहुत उपाय किया किंतु इन दोनों का उन्माद दूर नहीं हुआ। बाद में ये दोनों एक दिन नगर से निकल गए, वसुमती ने कहा, भगवन् ? यदि आप इसका उपचार जानते हों तो अवश्य दया करें, गुरु ने उन्मादनाशकारी प्रतियोग दिया, वे दोनों स्वस्थ हो गए। दोनों अत्यंत आश्चर्यचकित हो गए, दोनों बहनों को देखकर सुलोचना कहने लगी कि यह स्वप्न है ? या इंद्रजाल है ? कहाँ वह नगरी ? कहाँ वह वे अलंकार ? तब वसुमती ने उन दोनों से उन्माद का कारण बतलाया और गुरु की कृपा से तुम दोनों अब स्वस्थ हो गए । फिर वसुमती ने कहा कि भद्रे ? जिसी समय कनकरथ ने तुम्हें अंतःपुर में रख लिया उसी समय माया से सुमंगल विद्याधर
धनपति के वेश में मेरे साथ संभोग किया । धनपति देव ने प्रतिबोध दिया और मैं चंद्रजसा आर्या के पास दीक्षित हुई । यह अनंगवती भी धर्मश्रवण करके संसारभय से उद्विग्न होकर स्वामी के साथ दीक्षित हो गई । देखो ! ये हमारे गुरु सुधर्म - सूरि हैं: दोनों ने बड़े विनय से गुरु की वंदना की । उपदेश सुनने के बाद दोनों दीक्षित हो गए। चंद्रजसा के पास सुलोचना अनेक साधु क्रियाएँ करने लगीं । इस प्रकार तीनों बहन तथा मुनि कनकरथ तथा धनवाहन के बहुत समय बीत गए । चित्रवेग ? उस समय