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(१११) अनुभव किया । क्रमशः वह इतना विषयासक्त हो गया कि बीतें हुए समय को भी वह जानता न था । एक समय साधुओं के साथ वर्षावास निमित्त सुधर्मसूरि विजयवती नगरी में आए, साधुओं ने वासस्थान की याचना की, सार्थवाह ने ज्ञानशाला में उनका आवास कराया । अपने परिजन के साथ सार्थवाह आकर गुरु के पास धर्म श्रवण करने लगा। धनवाहन अनंगवती में इतना . आसक्त हो गया कि पिता के कहने पर भी गुरुवंदना के लिए कभी नहीं आता था। छोटे भाई को अत्यंत विषयासक्त तथा धर्मनिरपेक्ष जानकर गुरु के मन में चिंता हुई कि दुर्लभ मनुष्यत्व को प्राप्त कर भी विषयासक्त होने से नरक तथा घोर तिर्यंच योनियों में परिभ्रमण करेगा । अतः किसी प्रकार से प्रतिबोध देकर इसे धर्ममार्ग में ले आऊँ, यह सोचकर सूरि ने उसे बुलवाया। बड़े उपचार से आकर सूरि की वंदना करके जब उनके पास बैठा तब सूरि ने कहा, भद्र ! अनेक पुग्दल परिवर्तन के बाद इस मनुष्यभव को व्यर्थ मत बनाओ, जीव विषयों में आसक्त होकर कर्म बाँधते हैं
और इस संसार में उधम योनियों में परिभ्रमण करके नारक तिर्यंचगति में जाकर अनेक पीड़ाओं का अनुभव करते हैं, एकएक इंद्रिय के वश में रहनेवाले जीव भी जब कष्ट को पाते हैं तो फिर पंचेद्रियवशीभूत मनुष्य की क्या स्थिति होगी ? अतः सुंदर ! विषयसुख छोड़कर धर्म में अपने चित्त को लगाओ और अतिदुर्लभ मनुष्यभव को सफल बनाओ। उनकी बात सुनकर धनवाहन ने कहा कि मैं आपकी बात मानता हूँ किंतु वह बिचारी एक क्षण के लिए भी मेरा विरह सहन नहीं कर सकती है, इसीलिए तो मैं आपकी वंदना के लिए नहीं आ सकता हूँ, तब फिर गुरु ने कहा कि चंचल चित्तवाली स्त्रियों के लिए जो अपना दुर्लभ मनुष्यभव