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एक दिन समान अवस्थावाले अपने मित्रों के साथ अनेक वृक्षों लताओं से भूषित मनोहर उद्यान में गया । उनके साथ क्रीड़ाओं को करते हुए मैंने आकाश में दिव्य विमान पंक्तियों को देखा । जिनके रत्नों की कांति से आकाश चमक रहा था, जो उत्तर दिशा को जा रही थीं, और जिनमें देवांगनाएँ सुंदर गीत गा रही थीं, उनको देखकर मैंने मित्रों से पूछा कि चंचल कुंडल मुक्ताफल से सफेद कपोलवाले ये देवगण कहाँ जा रहे हैं ? कुछ हँसते हुए मेरे मित्र बंधुदत्त ने कहा कि वैताढ्यवासियों के लिए यह बड़ी प्रसिद्ध बात है कि सिद्धायतनों में जिनवंदन के लिए देवता लोग नित्य आते हैं तो फिर पूछने की क्या आवश्यकता है ? तब मैंने कहा, देवता लोग आते तो अवश्य हैं । किंतु आज सब प्रकार की ऋद्धियों से संयुक्त अत्यंत हर्षित होते हुए जा रहे हैं, इसीलिए मित्र ? मैंने पूछा हैं । इसके बाद कुछ सोचकर बंधुदत्त ने कहा कि मलयानल से सुगंधित, नवीन पल्लवों से रमणीय वसंत का आगमन हुआ है, अंत: सिद्धायतनों में देवों की यात्रा निकली है, देखो न मित्र ? वसंत के आगमन होने से वृक्ष चलते हुए मलय पवन से चंचल पत्तोंवाली शाखाओं के द्वारा मानो हर्ष से नाचते न हो । भ्रमरों के झंकारों से मानो गाते न हो, वसंत को आए देखकर मकरंद से पीली, सुगंधित कुसुम रूप मुखवाली वनराजियाँ हँसती न हों, नए पल्लवों से हरे-भरे वृक्षों को देखकर पलाश का मुख काला हो गया है । फलने का समय तो दूर है, खिलने के समय में ही इनका मुख काला हो गया है, यह सोचकर पत्तों ने इसे इस प्रकार छोड़ दिया है जिस प्रकार पात्र व्यक्ति कृपाण को छोड़ देते हैं, वन समृद्धि को देखकर पलाश का मुख संकुचित हो गया है, दूसरे क्षुद्र लोग भी दूसरे के अभ्युदय को नहीं सहते हैं, इतना ही