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ही है, यह कहकर माताजी ने मुझे ठग दिया । " तू जिसको चाहेगी, उसी के साथ तेरा विवाह कर दूंगा " यह कहकर भी पिताजी ने आज अपनी बात बदल ली, तो फिर मेरे लिए इष्ट संगम की आशा ही नहीं रह जाती । इस बात को जानकर भी हृदय ? तू अपनी आशा क्यों नहीं छोड़ देता ? अथवा पिताजी का क्या दोष है ? क्योंकि वे तो राजा के अधीन हैं भृत्यभाव से बढ़कर दुःखदायी और हो ही क्या सकता है ? कोई काम से भी अधिक सुंदर क्यों न हो ? कुबेर मे भी अधिक धनवान क्यों न हो ? साक्षात इन्द्र ही क्यों न हों, मैं तो अपने हृदयवल्लभ को छोड़कर अन्य किसी को भी नहीं चाहती हूँ, हृदय ! तो तू अपना चिंतित कार्य शीघ्र क्यों नहीं कर लेता ? ऐसा कर लेने से पिताजी के ऊपर भी दोष नहीं आएगा और मेरे वियोग-दुःख का भी अंत हो जाएगा, इस प्रकार मरने का निश्चय करके चित्रवेग ? वह बाला तमाल वृक्ष पर चढ़ गई । उसके साहस को देखकर मेरा शरीर कँपने लगा, मुख से आवाज़ नहीं निकलती थी । शरीर की संधियाँ शिथिल पड़ गईं, उसने तमाल वृक्ष की डाल में उत्तरीय वस्त्र से अपनी ग्रीवा को बाँधा और बोलने लगी कि माताजी ? मैंने बाल्यकाल से जो आपको अनेक क्लेश, दिए आप उसके लिए क्षमा करेंगी । पिताजी ? आप भी क्षमा करेंगे क्यों कि आपको भी मैंने बहुत कष्ट दिया था । सोमलते ? तू भी क्षमा करना । सखी वर्ग ? जो कुछ मैंने अपराध किया हो, क्षमा करना । हृदयवल्लभ ? प्राण त्याग करते समय आपसे मैं कुछ प्रार्थना करती हूँ, आप सुनें, इस भव में मुझे आपका संगम प्राप्त नहीं हुआ, अतः स्वामिन् ? अन्य भव में भी आप ही मेरे वल्लभ हों, यद्यपि मेरा यह वचन अत्यंत निष्ठुर है, फिर भी आपसे कहती हूँ कि आप मेरे हृदय से निकल
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