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सप्तम-परिच्छेद
उसके बाद पूर्व स्नेही चंद्रार्जुन देव के साथ वसुमती चंद्रप्रभा देवी अत्यंत अनुराग से दिव्य लोग के सुखों को भोगती है । इस प्रकार उस देव के साथ दिव्य सुख का अनुभव करते करते उसके बहुत दिन बीत गए। एक दिन अपने प्रियतम को विच्छाय (मलिन) देखकर भयभीत होकर उसने कहा, प्रियतम ? आप सशंक क्यों दीखते हैं ? आप पीडित क्यों हैं ? आपके शरीर में कांति क्यों नहीं हैं ? इतनी दीनता क्यों ? आपके मस्तक पर की पुष्पमाला एकाएक क्यों मुरझा रही हैं ? आपके वस्त्र क्यों काले पड़ रहे हैं ? आपकी आँख क्यों चंचल हो गई है? आपकी कामुकता कहाँ चली गई ? आप अपने शरीर को इतना मरोड़ते क्यों ? उसकी बात सुनकर देव ने कहा, सुंदरि ? क्या तुम जानती नहीं हो कि ये सब च्यवन के चिह्न हैं ? इसलिए अब मेरा भी च्यवन समय नज़दीक आ गया है, उनकी बात सुनकर चंद्रप्रभा देवी नरक की यातनाओं का अनुभव करने लगी। उसके दुःख का अंत नहीं रहा। एक दिन देवी के देखते-देखते तेज पवन से बुझे हुए दीप की तरह वे देव अदृष्ट हो गए । देव को च्युत जानकर चंद्रप्रभा देवी एकाएक मूच्छित हो गई, मूर्छा दूर होने पर इस प्रकार विलाप करने लगी, हे नाथ ? प्राण वल्लभ ? आप मुझे छोड़कर कहाँ चले गए? अब मैं किसके शरण जाऊँ ? आपके बिना मैं एक क्षण भी