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किसी को आशंका भी न होगी, मेरा मित्र नहवाहण से बच जाएगा। सुंदरि ? सुना है कि सुरनंदन में आकर ज्वलनप्रभ ने फिर अपना आधिपत्य जमाया है, और नगर के लोगों को संमानित किया है । इसलिए मैं तुम्हारे पिताजी को वहाँ मंगवा ऊँगा, ज्वलनप्रभ राजा भी बड़े गौरव से उन्हें देखेंगे, वहाँ मातापिता की आज्ञा से तुम्हारे साथ विवाह भी करूँगा यह सर्वथा अच्छा होगा। चित्रवेग की बात सुनकर प्रियंगमंजरी ने कहा कि आपकी आज्ञा मानने के लिए मैं तैयार हूँ, किंतु इतने दिन के बाद आपको प्राप्त कर के फिर मैं आपको नहीं देखने से मैं जी ही नहीं सकती, अतः नाथ ? यदि आप जाते हैं तो मुझे भी साथ ले चलिए। दूसरी बात यह भी है कि ज्वलनप्रभ राजा के कहने पर भी यदि मेरे पिताजी कनकप्रभ को छोड़कर सुरनंदन नहीं गए तो मुझे आपका दर्शन भी दुर्लभ हो जाएगा। अतः प्रियतम ? अन्य जो कुछ भी आप कहें मैं मानने के लिए तैयार हूँ किंतु मैं आपको छोड़ने में असमर्थ हूँ, चित्रवेग ? जब उसने इस प्रकार कहा तब मैंने उससे कहा, सुंदरि ! यदि ऐसा है तो तैयार हो जाओ, जब तक रात बीत नहीं जाती और ये लोग नृत्य देखने में व्यस्त हैं तब तक हम दोनों चल दें, उसने कहा, नाथ ? मैं सर्वथा तैयार हूँ, तब उसके साथ मैं आकाश में उड़ गया । कुछ ही दूर जाने के बाद उसने कहा कि मेरे पेट में दर्द हो रहा है, हृदय में शूल-सा हो रहा है, अतः नाथ ! आप इसका कुछ प्रतिकार करें, तब मैंने कहा, सुंदरि ! तुम्हारा शरीर अत्यंत सुकुमार है, रात में तुम्हें नींद नहीं आई, अतः चिंता करने की आवश्यकता नहीं, यहीं उतरकर इसका प्रतिकार करता हूँ, यह कहता हुआ मैं नीचे उतर गया और इस पवन संचार रहित कदलीगृह में इसको रक्खा ।