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ज्वलनप्रभ के भय से इस नगर को छोड़कर दूसरे - दूसरे नगर को जा रहे हैं, इसलिए पिताजी ! हम लोगों को भी नगर छोड़ देना चाहिए, खासकर आप तो कनकप्रभ राजा के मंत्री हैं, पुत्र की बात सुनकर अशनिवेग ने भी अपने भृत्यों को तैयार होने के लिए आदेश देकर विद्याबल से विमान की विकुर्वणा करके गृहसार वस्तु उस पर रखवाया । प्रियतम ! धारिणी ने आकर सारी बातें मुझ से बतलाईं, मैं भी विमान पर चढ़ गई, विमान उड़कर गंगावर्त नगर में कनकप्रभ के आवास स्थान के पास उतरा । गंधवाहन ने भी उचित सत्कार किया और हम लोग वहाँ रहने लगे । प्रियतम ! हृदय से मैं बराबर आपका ही चिंतन करती थी । मैं कब उनको देखूंगी ? कब उनसे मिलन होगा ? कब कनकमाला का विवाह समय आएगा ? इस प्रकार सतत सोचने से रात को भी मुझे नींद नहीं आती थी । एक दिन मेरी माता चंपकमाला के भाई अमितगति किसी राजकार्य से उस नगर में आए । अशनिवेग को देखकर अत्यंत हर्षित होकर उन्होंने कहा कि श्रीगंधवाहन राजा ने बहुमानपूर्वक अपने पुत्र नहवाहण के लिए कनकमाला की मंगनी की है । भद्र ! मैंने भी प्रसन्नतापूर्वक नहबाण को कनकमाला दे दी है। इसी पंचमी को उसका विवाह लग्न है | आप लोग सबांधव अवश्य आएँगे । अशनिवेग ने कहा कि मुझे तो स्वयं वहाँ जाना चाहिए किंतु आपके कहने पर तो आना ही होगा, किंतु एक कारण ऐसा है कि मेरा जाना ठीक नहीं होगा । कनकप्रभ राजा की दशा अभी अत्यंत विषम है । क्योंकि विद्या का नाश, राज्यनाश, अपने नगर का त्याग ये सब के सब अनर्थकारी हैं । जो भृत्य अपने स्वामी के दुःख में सुख का उपभोग करना चाहता है वह दोनों लोक से