________________
(१०७) से तुझे मारने के लिए अब मैं तैयार हूँ, सुप्रतिष्ठ ? यह कहकर उसने नागविद्या का आवाहन किया बड़े-बड़े भयंकर सर्प आकर मेरे शरीर में चिपक गए । मैं उनसे इस प्रकार बद्ध हुआ जिस प्रकार सरागजीव कर्मों से बद्ध हो जाता है । तब मुझे बड़ी पीड़ा होने लगी और मैं आकाश से नीचे गिरा । और कुछ क्षण के लिए मुझे मूर्छा आ गई । मेरी प्राणप्रिया भी मुझे बड़े संकट में देखकर कहा, आर्यपुत्र ? आपके इस अनर्थ का कारण मैं ही हूँ, हा आर्यपुत्र ! अब आपके विरह में मैं जीवित नहीं रहूँगी, धनदेव । उस विद्याधर की बात सुनकर मेरे मन में विकल्प आया कि पहले जो मैंने स्त्री का विलाप सुना था, निश्चय वह उसी कनकमाला का विलाप होगा । और उसके जो मैंने किसी पुरुष का निष्ठर शब्द सुना था वह इसी के शत्रु नहवाहण का शब्द होगा, फिर मेरे मन में यह बात आई कि चिंतन करने की आवश्यकता क्या ? चित्रवेग सब अपना चरित्र कहता ही तो है । फिर मैं सुनने लगा, उसने कहा, सुप्रतिष्ठ ? विलाप करती हुई मेरी प्रिया को पकड़कर नहवाहण ले गया और मैं उसके शोक से संतप्त था, इतने में आप यहाँ आए । और मणिजल सेसींचकर आपने उन सर्यों को हटाया, इसलिए आपने मुझे जीवन दिया है, मणि के प्रभाव से सर्प मुझे काट नहीं सके, यमराज के वंदन के समान भीषण सर्पो से मेरा उद्धार नहीं था । आपने जो मुझे इस संकट में पड़ने का कारण पूछा था, मैंने आपको बतला दिया, धनदेव ? विद्याधर के वचन को सुनकर मैंने अपने मन में सोचा कि लोग अनुराग के वशीकृत होकर विषय के लोभी बनकर अनेक विपत्तियों को प्राप्त करते हैं, परलोक की बात तो दूर रहे इसी लोक में ही रागांध लोग कार्या-कार्य को नहीं जानते हुए