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होकर एक टक लगाकर उस युवती को देख रहा था, इतने में उसकी धाई कुछ युवतियों के साथ आकर बैठ गई, फिर मधुर वचन से उसने कहा कि " सज्जन दूसरे के कार्य को करनेवाले होते हैं" यह बात आपने हाथी से इस कन्या को बचाकर सिद्ध कर दी, आपकी ही कृपा से यह बची है, इस प्रकार उसकी प्रशंसा करके संध्या हो रही है, यह कहकर चित्रगति से आज्ञा लेकर वे स्त्रियाँ अपने नगर को चलने लगीं, उसी समय एकाएक उस कन्या ने चित्रगति के हाथ से मुद्रारत्न ले लिया और अपने हाथ के मुद्रारत्न उसको दे दिया । जब वह नगर की ओर जा रही थी बार-बार पीछे की ओर मुड़कर सतृष्ण भाव से चित्रगति की ओर देखती थी । चित्रगति भी उसके रूप से इतना आकृष्ट हुआ कि वह भी उसी दिशा की ओर देखने लगा । इस बात को देखकर दमघोष ने धीरे से कहा, कुमार ! अब संध्या होने आई, अतः अब अपने स्थान को चले, बेकार विलम्ब से क्या ? उसकी बात सुनकर चित्रगति ने कुछ व्यस्तता दिखलाते हुए कहा कि मैं यों ही विलंब नहीं कर रहा हूँ । मेरे हाथ का मुद्रारत्न कहीं गिर गया है, अतः मैं उसका अन्वेषण करके कल सबेरे आऊँगा, तुम चलो और ज्वलनप्रभ से सारा वृत्तांत बतलाना, उसकी बात सुनकर दमघोष ने कुछ हँसते हुए कहा, कुमार ? क्या आपने नहीं देखा है कि आपके हाथ से उस लड़की ने मुद्रारत्न ले लिया है ? तो फिर व्यर्थं क्यों इस प्रकार बोलते हैं । सीधे क्यों नहीं बोलते हैं कि कन्या का ठीक-ठीक पता लगाकर आऊँगा । उसकी बात सुनकर चित्रगति ने कहा, भद्र ? तुमने ठीक ही समझा है, इसके बाद दमघोष प्रणाम करके उड़ गया । चित्रगति भी वहाँ से चलकर युगादि देव के मंदिर में चला गया । उसके बाद मैं सोचने लगा