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चले गए। यह कहकर वह मनुष्य चला गया। उसकी बात सुनकर चित्रगति मानो मुद्गर से पीटा न गया हो। राक्षस से निगला न गया हो, वज्र से ताड़ित न हो, इस प्रकार अत्यंत व्याकुल होकर सोचने लगा कि अब मुझे उस बाला का दर्शन कैसे होगा ? जो बाला मेरे हृदय में आनंद देनेवाली थी। उसके कुल का तथा घर का पता भी नहीं हैं, तब फिर करोड़ों लोगों से भरे इन नगरों में कैसे उसका पता लगाऊँ, किससे पूछू ? कौन मुझे उसका पता देगा ? कैसे वह मिलेगी ? उसके नामाक्षर भी मुझे मालूम नहीं हैं, हाय ! मैं क्या करूँ ? हृदय ! अब तू उसको क्यों याद करता है ? जब उसके स्थान का भी पता नहीं, तब अब तुझे क्या आशा है ? अथवा चिंतित होने से क्या ? धीरता का अवलंबन करके कुछ उपाय सोचता हूँ, क्यों कि उपाय से मनुष्य दुष्प्राप्य वस्तु भी प्राप्त कर लेता है । अतः केवल एक ही उपाय है कि मैं नगर से नगर में घूमकर उसका अन्वेषण करूं, कदाचित कोई उसका पता बतलाए, अथवा कहीं मैं स्वयं उस चंद्रमुखी को देख लूँ । यह सोचकर चित्रवेग ? वह चित्रगति दयिता वियोग से अत्यंत संतप्त होकर अपने बंधुवर्ग को छोड़कर अकेला उत्तर श्रेणी के नगरों में घूमने लगा किंतु कहीं भी उसको उस बाला का पता नहीं चला। उसके बाद में दक्षिण श्रेणी में आया । वहाँ नगरों में घूमते हुए कहीं भी उसे नहीं पाकर आज आपके इस नगर में आया हूँ, इस उद्यान में प्रवेश करते समय मुझे बड़ा अच्छा शकुन आया, मेरे दक्षिण भुज, तथा मेरी दाईं आँख फड़कने