________________
(८४)
1
जन्मदिन में पिताजी ने पुत्र जन्मोत्सव से भी बड़ा उत्सव बनाया । बारहवें दिन मेरा नाम प्रियंगुमंजरी रक्खा । क्रमशः बढ़ने पर मैं कौमारावस्था में आई । सर्व कलाओं का मैंने अच्छा अभ्यास किया । धीरे-धीरे I युवावस्था में आने पर मैं सखियों के साथ अनेक क्रीड़ा करने लगी। किंतु प्रियतम ! मैं स्वभावतः पुरुष के साथ द्वेष रखने लगी । ऋद्धि-सिद्धि संपन्न अनेक वर आने लगे । किंतु मैं किसी को पसंद नहीं करती थी, वे सब चले जाते थे । मेरे इस आचरण से पिताजी बहुत दुःखी रहने लगे । एक दिन चंपकमाला मेरी माता ने उनसे पूछा कि आप इतने शोकित क्यों दीखते हैं ? पिताजी ने कहा कि पुत्री विवाह के योग्य हो गई । अविवाहित रखने से कुल में मलिनता आएगी, इसका इष्टवर कौन होगा ? इन बातों को सोचकर प्रिये ! मैं शोकित रहता हूँ, उनकी बात सुनकर मेरी माता भी चिंतित हो गई । एक दिन सबेरे सूर्यप्रभ की पुत्री धारिणी मेरे पास आई । उसने मुझ से कहा कि सखि ! तुम्हारा चित्त उद्विग्न क्यों दीखता है ? बहुत दिन के बाद मैं आई हूँ, फिर भी मेरे साथ संभाषण क्यों नहीं करती हो ? मैंने कहा, प्रियसखि ! तुमने ठीक ही सोचा है, मेरा समाचार सुनो। उस दिन तुम्हारे साथ खेलकर मैं घर आई । ऊपर महल में मणिमय पलंग पर मैं सोई । आधी रात के समय दुन्दुभि शब्द सुनकर मैं जग गई । दिव्य विमानों से पूर्ण आकाशमार्ग को देखा, गगनमंडल प्रकाशित था । अनेक देवांगनाएँ सुशोभित हो रही थीं, मैंने सोचा कि इन विमानों को, देवांगनाओं को मैंने पहले कहाँ देखा था ? एकाएक में मूर्च्छित हो गई। मूर्च्छा टूटने पर मुझे जाति -स्मरण उत्पन्न हुआ । देवभव तथा मनुष्यभव दोनों भव की बातें मेरे स्मरण में आ गई । मैं कहती हूँ तुम सुनो
I