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(६६) भी कनकप्रभ नाम का पुत्र हुआ। बंधु सुंदरी ने अपनी पुत्री चित्रलेखा को यवावस्था प्राप्त देखकर अपने भाई के वचन को स्मरण कर अपने पति भानुगति से अपने भाई की बात बतलाई, भानुगति ने अपनी पुत्री चित्रलेखा प्रभंजन के बड़े पुत्र ज्वलनप्रभ को दी। उसने भी बड़ी प्रीति से उसके साथ विवाह कर के अपने नगर में उसको लाया और देवलोक में देव के समान उसके साथ विषयभोग करता है।
एक समय विद्याधरराज प्रभंजन आकाश में चंद्र के समान धवल एक भवन को देखकर सोचने लगे कि यह कितना सुंदर भवन है ? ऐसा ही सुंदर जिन-मंदिर बनवाता हूँ, ज्यों ही मणिकुट्टिम में उस भवन का चित्र खींचने के लिए तैयार हुए, इतने में पवन के झकोरे से वह बादल नष्ट हो गया। यह देखकर वे सोचने लगे कि मनुष्य की लक्ष्मी भी इसी प्रकार चंचल है। इस संसार के रूप-यौवन बंधु सम्बंध आदि सभी पदार्थ क्षण मात्र आनंद देनेवाले हैं, वस्तुतः सब अनित्य हैं । अतः संसारवास को धिक्कार है, विषयासक्त जीव अनित्य वस्तु को भी नित्य मानते हैं यह अविवेक की महिमा है, जिनवचन को जानते हुए भी कामासक्त जीव आरम्भ परिग्रह में रहते हैं, यह महामोह का माहात्म्य है, इसलिए जिनेंद्रवचन को जानते हुए भी मेरे लिए दुःखमूल संसार निवास कारण इस राज्य से क्या ? अतः सावध कर्म को छोड़कर मैं प्रव्रज्या के लिए उद्यम करूँ, दूसरी बात यह है कि मेरे सभी पूर्वज राजा अपने पुत्रों को राज्य देकर श्रामण्य पालन कर के सुगति को प्राप्त हुए हैं, तो फिर मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए। यह सोचकर राजा पास के विद्याधरों से कहते हैं, इतने में चतुर्ज्ञानी सुघोष नामक चारणमुनि भविकों को प्रतिबोध देने के लिए वहाँ