________________
(३८) नहीं, अत्यंत लाल होता हुआ यह पलाश पिशाच की तरह विरही लोगों को सताता है, वसंत की सहायता लेकर कामव्याघ बड़ी निर्दयता से विरहिणी स्त्रियों का वध करने को तैयार हो गया है, कोयल कंजन ही उसका हास है । आम की मंजरियाँ ही उसके दाँत हैं, उसके द्वारा पथिकों की दुर्दशा देखकर नम्रमुखी लताएँ कुसुम के आँसू से रो रही है, जगह-जगह पलाश वृक्षों के बहाने भरे पथिकों की चिताएँ जल रही हैं, भ्रमर गुंजन मानो जलती चिता का शब्द है, वृक्ष शाखारूप हाथ से मानो झरने द्वारा पथिकों को जलांजलि देते हैं ।
धार्मिक लोग ऐसे समय में भक्ति से श्रीजिनेश्वर देव दर्शन के लिए यात्रा करते हैं, इसलिए देवता लोग बड़े समारोह से वैताढ्य पर्वत पर जा रहे हैं, तब मैंने कहा, मित्र ! हम लोग भी सिद्धकूट पर जाकर भक्तिपूर्वक शाश्वत - सर्वज्ञ प्रतिमाओं को प्रणाम करके अपने जीवन को सफल करें, विद्याधरों से की जाती हुई जिन यात्रा को भी देखें, सभी मित्रों ने ज्यो ही स्वीकार किया इतने में बल नाम का मेरा धाईपुत्र वहाँ आ पहुँचा, उसने कहा कि चित्रवेग ! आपके पिताजी ने कहा है कि रत्न-संचय नगर के सभी विद्याधर गण स्नान विलेपन करके सुंदर वेष में बड़ी विभूति से जिन यात्रा में सिद्धकूट पर चले हैं, इसलिए हम लोग भी चल रहे हैं, अतः तुम भी आओ, जिससे साथ ही चलें, उसकी बात सुनकर मैं अपने घर आया और मेरे मित्र भी अपने-अपने घर आए, स्नानादि कर के धूप पुष्पादि पूजा सामान लेकर नगरवासी सहित पिताजी के साथ तलवार के समान श्यामल गगन में उड़ते हुए क्रमश: मैंने जिन भवन को देखा । उसके द्वार देश पर निर्मल जल से भरी वापी में पैर धोकर अपने मित्रों के साथ जिन