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(५०) दैव क्या कर देता है ? कहाँ कनकमाला ? कहाँ मैं ? और कहाँ हम दोनों का पारस्परिक अनुराग? दुष्ट विधाता ने सब कुछ बदल दिया। उस दुष्ट की यदि यही बुद्धि थी उसका दर्शन ही क्यों कराया ? और जब वह अनुरागिणी बन गई तो फिर दूसरे के साथ जोड़ने में उसे लज्जा क्यों नहीं आती?
इतना ही नहीं, इन आंखों के ऊपर वज्र या उससे भी कठिन कोई घातक वस्तु पड़े जो अज्ञातव्यक्ति के साथ भी संबंध करा देती हैं, मैं नहीं जानता कि मेरा हृदय अभी भी उसके प्रति अनुराग को क्यों नहीं छोड़ देता ? अवश्य मेरा हृदय वज्र का बना हुआ है, नहीं तो इतने बड़े दुःख वहन करते समय इस के सौ टुकड़े हो जाते, कुमार ! उसके विरह में दुःखी होकर मैं जब इस प्रकार चिता कर रहा था इतने में सोमलता फिर मेरे पास आई, वह कुछ प्रसन्न दीखती थी, मेरे पास बैठी और मुझे दुःखी देखकर बोली कि सुंदर ? उसके वरण की बात सुनकर आप उदास क्यों हो रहे हैं ? आप मेरी बात सुनें, मैंने कहा, सोमलते ! क्या अब भी मेरे मन में कुछ आशा है जो तुम इस प्रकार बोलती हो ? उसने फिर कहा कि आपके विरह में कनकमाला को मूच्छित देखकर चूतलता को आपके पास भेज दिया था। कनकमाला को सखियों ने आपके समागम की बातों से बहुत आश्वासन दिए फिर भी वह बेचारी क्षण-क्षण में मच्छित होती रही, वह कभी उठती थी, कभी हुँकार करती थी, कभी गाती थी, कभी हँसती थी, कभी डरती थी, उसकी स्थिति से चिंतित होकर मैंने जाकर उसकी माता चित्रमाला से उसकी सारी बातें कह दीं, मेरे साथ ही आकर गुप्तरूप से उसकी माता ने उसके स्वरूप को देखा और उसने कहा, पुत्रि ? तेरा मुख इतना उदास क्यों है ? तू क्यों मेरे साथ