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लता जब घर आई तो उसका मुख ग्रसितचंद्र के समान था। तब मैंने उससे पूछा कि पुत्रि ? आज तू खिन्न क्यों है ? उसने कुछ उत्तर नहीं दिया केवल वह दीर्घ निःश्वास छोड़ने लगी। उसकी आँखें अश्रुजल से भर गईं, तब दुःखी होकर मैंने उसकी सखी हंसिका से पूछा, उसने कहा माताजी ? आज हम उद्यान गई थीं, मदन पूजा करके जब हम बाहर निकली तो भानुवेग के पास साक्षात् कामदेव के समान महाभाग एक तरुण को देखा । उनको देखते ही इसकी आँखें निस्पंद हो गईं। उनके मुख की ओर देखती हुई यह एकदम चित्रलिखित-सी हो गई, उनकी दृष्टि अपने ऊपर नहीं पड़ती देखकर वह अपने को अभागिन जैसी मानती हुई कुछ सोचकर सखियों से बोलो कि इस आम के पेड में दोला लगाकर खेलें, वैसा करने के बाद पास की सखियों को भी ज़ोर-ज़ोर से बुलाने लगी । तात्पर्य यह था कि मेरे शब्द को सुनकर वह मेरी ओर देखेगा और मैं कृतार्थ हो जाऊँगी। तब मैंने परिहास में कहा, सखि ? आप ज़ोर-ज़ोर से क्यों बोलती हैं ? वे तो कौतुक में मग्न हैं, आपको उत्तर नहीं देंगे। मेरी बात सुनकर वह कुछ लज्जित जैसी हो गई, इतने में काम सुंदर उस तरुण ने इसकी ओर देखा । देखते ही कनकलता भय और हर्ष से अपूर्व रस को प्राप्त हो गई । अपने को कृतार्थ मानने लगी। उसके शरीर में रोमांच आ गया । सखियों का आलिंगन करने लगी, बिना कारण हँसने लगी। पैर के अंगूठे से भूमि को खोदने लगी। केशों को बाँधने लगी। कुछ देर इस प्रकार क्रीड़ा करके काम से संतप्त होकर यहाँ आकर ऐसी हो गई, मैंने हँसिका से पूछा, वह कौन था? उसने सब समाचार बतलाया । योग्य स्थान में पुत्री का अनुराग हुआ यह सोचकर मैं उसके पास गई, मैंने उसको देखा।