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अभी-अभी शराब लेने के लिए नगर में गया है, सुनते ही धनदेव ने वहाँ जाकर उससे कहा भद्र ? आपको मैं लाख सुवर्ण मुद्राएँ देता हूँ, आप यह बालक मुझे दे दें, उसने कहा कि जब तक दूसरा योगी नहीं आता है उसके पहले ही आप दे दीजिए, मैं बालक दे देता हूँ, धनदेव ने एक लाख सोना मोहर मूल्यवाली अपनी अंगूठी देकर उस बालक को छुड़ा लिया। योगी वहां से भाग निकला, जयसेन को लेकर धनदेव देवशर्मा के पास आया, बालक समर्पित करने पर देवशर्मा प्रसन्न होकर कहने लगा कि आप ही मेरे स्वामी हैं, आप ही मेरे बंधु हैं, आप ही मेरे जीवन दायक हैं, जीवित कुमार को मुझे सौंपकर आपने मेरा क्या-क्या नहीं किया? दुष्ट योगियों के पास से कुमार को बचाकर आपने मेरे स्वामी को भी जीवन दान दिया है, उसके बाद धनदेव देवशर्मा को अपने घर ले आया, भोजन कराकर नौकरों के साथ उसको अपने स्थान पर भेज दिया, यह बात बिजली की तरह नगर में फैल गई कि धनदेव बड़ा त्यागी है । लाख-लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान करता है, धनदेव मित्रों के साथ जिधर जाता था उसको देखकर लोग अनेक प्रकार की बातें करते थे, कुछ ईर्ष्यालु और अपने त्याग से गर्विष्ठ लोग कहने लगे कि धनदेव तो अपने बापदादाओं के द्वारा अजित लक्ष्मी का विनाश कर रहा है, वही दान प्रशंसनीय है जो अपने पराक्रम से लक्ष्मी उपार्जन करके दिया जाए, बापदादाओं से अजित लक्ष्मी से दान करना तो स्वाभिमानियों के लिए कलंक है, कहा भी है कि बापदादाओं से उपार्जित लक्ष्मी का उपयोग कौन नहीं करता है ? अपने पुरुषार्थ से कमाए हुए धन से विलास करनेवाले पुरुष को कोई विरला ही माता जन्म देती है, इस लोकापवाद को सुनकर धनदेव ने सोचा कि इनका कहना सत्य है, मुझे