________________ 90 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी - [गाथा-३० इन्द्र महाराजकी सतत (एक समान) रक्षामें ही तत्पर रहते हैं। शत्रुदेव उन सुदृढ़ आत्मरक्षकोंके देखते ही क्षुब्ध-त्रस्त हो जाते हैं और वे देव अपने कर्तव्यमें मग्न रहनेसे इन्द्रके प्रेमका भाजन भी होते हैं / ऊपर लिखे विवरणको पढ़ते ही शंका उत्पन्न होती है कि इन्द्र जैसे समर्थ और देवोंमें सर्वोत्तम पुरुषको भी क्या आत्मरक्षकोंकी आवश्यकता होती है ? उसका समाधान यह है कि-महाशक्ति, समर्थ इन्द्रको रक्षणकी कोई अपेक्षा ही नहीं है, क्योंकि शत्रुओंकी ओरसे उपद्रवोंकी तो कोई विशेष सम्भावना नहीं है, परन्तु 'इन्द्र उस देवलोकका सर्व सत्ताधीश स्वामी है, साथ ही यह हमारा महान् स्वामी है।' स्वामित्वकी यह मर्यादा, उसका परिपालन और स्वामीकी प्रीतिका सम्पादन करनेके लिये वे सदा शस्त्रसज्ज बनकर उपस्थित रहते हैं। साथ ही सेवकका धर्म-पालन करना यह भी उनका कर्त्तव्य है। __जैसे वर्तमानकालमें राजा-महाराजा या सत्ताधीश जो प्रबल शक्तिसम्पन्न होने पर भी उनकी श्रेष्ठता या महत्ता प्रदर्शित करने, अपना गौरव बढ़ाने और स्वामित्वका सूचन करनेकी दृष्टिसे जिस तरह बड़े बड़े शूरवीर अंगरक्षक उनके साथ ही रहते हैं वैसे ही यहाँ भी समझें / सामानिक तथा आत्मरक्षक देवोंकी संख्या भवनपति निकायों में प्रथम असुरकुमार निकायकी दक्षिणदिशाके चमरेन्द्र के चौसठहजार और उत्तरदिशानिवासी बलीन्द्रके साठ हजार सामानिकदेवोंका परिवार है। अवशिष्ट सभी नौ निकायोंके धरणेन्द्रादि प्रमुख अठारहों इन्द्रों में प्रत्येक 'इन्द्रको छः-छः हजार सामानिक देवोंका परिवार वर्तित है / ऊपर जिस-जिस इन्द्रके सामानिक देवकी जो संख्या कही गई है उस संख्याको चार गुनी करनेसे जो संख्या आये, वह संख्या उस-उस इन्द्रके आत्मरक्षक देवोंकी समझनी चाहिये। जैसे कि चमरेन्द्र के सामानिकदेव 64000 हैं उसे चार गुना करें तो 2,56,000 आत्मरक्षकोंकी संख्या होती है। इस तरह सर्वत्र जाने / इस तरह चार निकायों मेंसे पहले भवनपति निकायके देवोंकी आयुष्यस्थिति, निकायों के नाम, इन्द्रोंके नाम, भवनसंख्या, उनके चिह्न, देह-वर्ण, वस्त्रवर्ण, सामानिक और आत्मरक्षककी संख्या कही गई है। अब ग्रन्थकार भवनपति निकायकी तरह क्रमप्राप्त दूसरे व्यन्तर निकायका वर्णन आरम्भ करते हैं / (30)