________________ * 38 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . गाथार्थ-दूसरे प्रतर से लेकर अन्य प्रतरों में, एक एक नरकावासा से हीन-न्यून युक्त पंक्तियाँ होती हैं, जिसके कारण एक एक हीन (कम) करते जाने से अंत में (यावत् ) सातवीं पृथ्वी के प्रतर में सिर्फ दिशागत एक एक नरकावासा ही रहता है, जब कि विदिशा में एक भी रहता नहीं है / [232] विशेषार्थ-अब द्वितीय प्रतर से लेकर प्रत्येक प्रतर में एक एक नरकावासा को आठों पंक्तियों के अंतिम-अंतिम भाग से कम करते जाने से, प्रथम प्रतर की दिशागत संख्या में से एक-एक संख्या कम करने से द्वितीय प्रतर पर दिशागत प्रत्येक पंक्ति में अड़तालीसअड़तालीस (48-48) नरकावासाओं की संख्या रहती है और विदिशा में से. एक-एक संख्या कम करते जाने से सैंतालीस-सैंतालीस (47-47) की संख्या रहती है / सातों नरक आश्रयी (पूर्वानुपूर्वी) प्रत्येक प्रतर पर इस प्रकार करने से अंतिम (यावत् ) सातवीं माघवती पृथ्वी के प्रतर पर पहुँचते-पहुँचते चारों दिशाओं में सिर्फ एक-एक नरकावासा रहता है, लेकीन विदिशा में एक भी नरकावासा मिलता नहीं है, क्योंकि प्रथम प्रतर पर ही दिशागत संख्या से एक कम संख्या विदिशा में थी जिसके कारण यहाँ विदिशा में वह प्राप्त न हुआ। अब पश्चानुपूर्वी अर्थात् उससे विपरीत ( उलटा ) क्रम से सोचने से अंतिम प्रतर के मध्य में अप्रतिष्ठान इन्द्रक तथा एक-एक आवास चारों ओर मिलता है / इसके बाद प्रत्येक प्रतर पर दो, बाद में तीन-चार-पाँच-छः इस प्रकार अनुक्रम से एक-एक संख्या की वृद्धि करने से तथा 48 वें प्रतर से विदिशा में भी एक-दो-तीन इस प्रकार स्थापित करते करते वहाँ तक पहुँचें कि प्रथम प्रतर पर दिशा-विदिशा में बतायी गयी उक्त संख्या आ जाए / [232 ] अवतरण—अब प्रत्येक प्रतर पर अष्टपंक्ति की मिली-जुली संख्या लाने के लिए सवा गाथा द्वारा 'करण' दिखाते हैं / और उस की सहायता से मिलनेवाली नरकवर्ती प्रथम प्रतर संख्या को भूमि और अंतिम प्रतर संख्या को मुख नाम से पहचाना जायेगा / इट्ठपयरेगदिसि संख, अडगुणा चउविणा सइगसंखा / जह सीमंतयपयरे, एगुणनउया सयातिनि // 233 / / अपइट्ठाणे पंच उ-२३३३