________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * अनंतानंत सिद्धात्मा रहते हैं, वहाँ उत्पन्न हो जाती है और वहाँ सदा ही-अक्षय-अचलअव्याबाध अनंत सुखकी भोक्ता बन जाती है। ___आत्मागत जन्मके मृत्यु स्थानसे ऊर्ध्वलोकान्तमें जब गति करती है तब एक साथ एक ही समय पर तीन कार्य होते हैं / 1. शरीरका वियोग, 2. सिद्धयमानगति और 3. लोकान्त प्राप्ति / यह एक असाधारण घटना है, तथा चिंतनीय सी वैज्ञानि रहस्यपूर्ण है। औदारिक शरीरका वियोग होने पर आत्मा विदेही-अदेही बनती है, इससे अनादिकालके अनर्थकारक देहसंगसे छूटनेसे हमेशाके लिए दुःखमुक्त बनता है। इस ऊर्ध्वगतिको सिद्धयमानगति कही है / यह गति ऊर्ध्व ही कैसे हो? इसके लिए क्या हेतु हैं ये दृष्टांतके साथ शास्त्रमें दिये हैं। सिद्धयमानगतिके चार हेतु 1. पूर्वप्रयोग हेतु, 2. असंग हेतु, 3. बन्धछेद हेतु 4. ऊर्ध्वगौरव हेतु। पूर्वप्रयोग हेतु दृष्टान्त-पूर्वबद्ध कर्म छूट जानेके बाद भी, उस कर्मके छूटने पर आया वेग-आवेश अथवा आगेके कार्य में सहायक होनेवाली पूर्वकी क्रिया वह / यहाँ इसे समझने कभकारके चक्रका दृष्टांत उपयोगी है। जिस तरह कुम्हार हाथ में रखी लकडीसे चक्र-चाक घुमाता है और फिर उस लकड़ी और हाथ दोनोंको उठा लेता है। लेकिन इस पूर्व क्रिया-प्रयत्नसे जो वेग आता है उसके बलसे चाक जैसे स्वतः घूमता है, वैसे सर्वथा कर्ममुक्त बना जीव भी पूर्व कर्म-संस्कार जनित आवेगके कारण स्वस्वभावानुसार ऊर्ध्वगति ही करता है और उस गतिका कार्य लोकान्तमें पहुँचते ही पूर्ण होता है, क्योंकि उससे आगे अलोक है, और वहाँ धर्मास्तिकायके 425 अभावमें जीव या पुद्गल किसीकी गति नहीं होती / प्रथम हेतु पूर्वप्रयोग दृष्टांतसे४२६ समझाया। 2. असंग हेतु दृष्टांत-इसमे प्रसिद्ध तुम्बेका दृष्टांत दिया जाता है। जिस तरह घास-मिटीके अनेक थरो-लेपो चढाकर भारी बना, पानीमें डुबोया, तुम्बा लेपके भारसे पानीमें ही तलमें नीचे पडा रहता है लेकिन जब उसके परके माटीके थर-लेप पानीके संसर्गसे जब संपूर्णतः धुलकर-साफ हो जाते हैं तब तत्क्षण तुम्बा अपनी सतह पर ही रहने के स्वभावसे पानी पर तैर आता है / आठ प्रकारकी कर्मरूप माटी के थरों या लेपोंसे 425. यह कहनेका कारण यह है कि लोकके बाद उसके आसपास अलोक है और उसमें जीवाजीवादि छः द्रव्योंमेंसे मात्र एक आकाश द्रव्य ही है। शेष पांचमेंसे एक भी द्रव्य नहीं है, अतः गति या स्थिति सहायक धर्मास्तिकाय या अधर्मास्तिकायके अभावमें एक प्रदेश जितनी भी गति अलोकमें संभवित नहीं है / बिलकुल निर्जीव प्रदेश है और वह विश्व-मूलक चौदह राजलोकसे अनंत गुण है / 426. इस पूर्व प्रयोगमें हिंडोले (झूले) और बाण प्रयोगके भी दृष्टांत दिये जाते हैं / हिंडोलेको हाथ या पैरसे पीछे धकेलकर फिर हाथ पैरका प्रयत्न बंद हो जाए तो भी किये हुए पूर्व प्रयत्नके बलसे वह झूला फिरसे आगे फँस जाता है इस प्रकार यहाँ समझना / धनुर्धारी बाणको इष्ट स्थान पर पहुँचाने प्रथम पीछे खिंचनेका प्रयोग करके फिर बाण छोड़ता है, तब पीछे खिंचनेके प्रयत्नका अवलंबन लेकर आगे लक्ष्यस्थान में पहुँच जाता है, इस प्रकार समझना /